'५०० काव्य-निर्णय "बोन संवारौ तौ सवारी नौ विगारी कछु, बोकन-संवारि "नर-नारी नां संवार तो। कीन्हे नर-नारी तौ नौ प्रेम को प्रचार देतो, । प्रेम को प्रचारौ तौ नौ मेंन कों प्रचार तो॥ मेंन को प्रचारौ तौ प्रचोरयौ ना संजोग दे तो, कीन्हों जो सँजोगै सौ वियोगै ना विचार तो॥ 'नंदराम' कीन्हों जो बियोग विधिना तो भूलि, बोरे बन-बांगन बसंत नौ बगार तो॥ साँझ के सलोने घन सबुज-सुरंगन सों, कैसें के अनंग अंग-अंगने सताउ तो। कहै 'पद्माकर' झकोर झिल्ली सोरेन को, मोरन को महत न कोऊ मॅन-स्याउ तो॥ काहू बिरही की कही मान लेतो जो पै दई, ___ जग में दई तो दया-सागर कहाउ तो। पावस-बनायौ तौ न बिरह बनाउ तो, जौ बिरह-बनायौ तौ न पावस बनाउ तो॥" अथ रसनोपमाँ-अलंकार लच्छन जथा- उपमा औ एकाबली को संकर जहँ होइ । ता-ही को 'रसनोपमाँ', कहैं सुमति सब कोइ । वि०-"जहाँ उपमा और एकावली-अलंकारों का संकर हो वहाँ दासजी रसनोपमा अलंकार कहते हैं । अथवा बहुत से उपमान और उपमेयों में यथोत्तर । उपमेय को उपमान कथन किये जाने को-सेट कन्हैयालाल पोद्दार-वचनात्- रसनोपमा कहते हैं । अथवा जहाँ कहे हुए उपमेय क्रमशः उत्तरोत्तर उपमान होते जाय और इसी प्रकार उपमेयोपमानों की एक श्रृंखला बन गयी हो तो वहां रसनोपमा, क्योंकि रसनोपमा--उपमा और एकावली की (दासजी-अनुसार) गृहीत-मुक-रीति के संयोग से बनता है। । रसनोपमा को प्रायः सभी संस्कृत तथा ब्रजभाषा के सभी अलंकार मथों में "उपमा-प्रपंच" ( उपमा के विविध भेदादि ) के साथ लिखा है। वहाँ इसके लक्षण निम्न प्रकार है -"मयोत्तरोपमेयस्योपमागचे पूर्ववदमियभित्र धर्म वेति:" यदि क्रमशः पूर्व-पूर्व वाले उपमेय पीछे-पीछे उपमान रूप
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