पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५४२

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काव्य-निर्णय ५०७ माँनुष हू' को संबार करौ तौ, विन्हें '-विष प्रेम-प्रचार करौ जिंन । प्रेम-प्रचार' करौतौ दयानिधि, क्योंहूँ बियोग-विचार करौ जिंन । वि०-“दासजी का प्रथम उदाहरण उत्कर्ष रूप उत्तरोत्तर का है। यहाँ उत्तरोत्तर रूप सार तो है ही, अधिकालंकार भी अपनो प्रतिभा-सौंदर्यता, अलग- ही दिखला रहा है । द्वितीय उदाहरण अपकर्ष रूप उत्तरोत्तर का है, जो प्रोषित नायक की उक्ति से-कहने के ढंग से, अधिक स्पष्ट हो रहा है। प्रथम उदाहरण स्वरूप दो छंद और देखिये, यथा- "जिहिँ हरि-उदर-माँहि बहु लोक रहत । बड़े सोऊ गुंनि नेनन में निवसंत ॥" "कापै तेरे हगन की, कही बडाँई जाइ। त्रिभुबन जाके मुख-बसै, सो जिहि रह्यो समाइ॥" प्रथम बरवै 'रहीम' जी का है, और द्वितीया दोहा स्व० बा० जगन्नाथ- दासजी रत्नाकर' का। दो दोहे रसनिधि जी के भी देखिये, जो इसी बात को एक नये प्रकार से रख रहे हैं । यदा- "तुम गिरि लै मख परयो, हम तुम को ग-कोर । इन है में तुम ही कहो, अधिक कियो को जोर ॥" "घर-बढ़ इन में कोंन हैं, तुही साँवरे-ऐन । तुम गिरि ने नख धरयो, इन गिरिधर लै नेन ॥" आँखें वह मांखें है, देखा हो जिन आँखों ने तुझे। दिल वही दिल है कि जिस दिल में तेरी याद रहे। दासनी के द्वितीय उदाहरण के सम-तुल्य कवि 'नंदराम' और "पद्माकर" के दो छंद देखिए, कितनी सुंदर समानता है, यथा- १.(का०)(प्र०) ही...। २. (का०) (३०) (प्र०) (का० प्र०) (र० कु०) तिन्हें...। ३. (का००)२० कु०) जनि । ४. (०) प्रकार | ५.(का०प्र०) केहूँ...। ६. (का०प्र०) (२०१०) पनि ।

*. म० अयोध्या):०-११, ५/-प्रोक्तिपति का नायिका बर्दन ।

कार, प्रमाद)-०१४-पोषित-पति। कार का० ( रा०प० सि० ) १०६६१।।