पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५३४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय ४६६ .पोदार कन्हैयालालजी सेठ ने भी अपनी 'अलंकार-मंजरी' में शान्द और आर्थ यथासंख्य के सुंदर उदाहरण दिये हैं, यथा- "जोबन-बय सों संकित है सरमाइ । सील, सौर्य, बल दुति सों अति ललचाइ ॥ राम-हि लखि सिय-लोचन-नलिन सुहाँहि । सकुचत, विकसत, छिम-छिन धेनु-मख-माहि ॥ श्रार्थ, यथा- "चख-सर-छत अदभुत जतन, बधिक यद-निज-हथ्य । उर, उरोज, भुज, अधर-स, सेक, पिंड, पट, पथ्य ॥" एकाबली-अलंकार लच्छन जथा- किए जंजीरा - जोरि - पद, 'एकबली' प्रमाँन । "सुति-पस मात, मति-बस भगति, भगति-बस्य भगमॉन ॥" वि०--"जहाँ जंजीरा ( हार ) के समान पदों (शब्दों या वाक्यों ) को जोड़ा जाय--शृंखला-सी बांधी जाय, वहाँ 'एकावली' अलंकार माना जाता है । भाषा-भूषण में लक्षण-उदाहरण इस प्रकार दिया है - "गहत-मुक्त-पद रीति सों, 'एकाबलि' तब माँन । दृग ति-लों, स्नु ति बाहु-लों, बाहु जाँनु-लों जॉन ॥" अर्थात् , जहाँ गृहीत तथा मुक्त ( ग्रहण और छोड़ने ) की रीति से पद रखे जॉय, वहाँ एकावली । जैसे—उस ( नायक ) के नेत्र कानों तक, कान बाहु तक और बाहु घुटनों तक हैं । इसी प्रकार दासजी का भी-श्रुति (कान) के वश मति, मति के वश भक्ति और भक्ति के वश भगवान...। ___ एकावली-एक लड़ा हार या माला कहा जाता है। जिस प्रकार हार व माला में एक दाना दूसरे से और दूसरा दाना तीसरे से मिले हुए रहते हैं- एक के बाद दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे की गणना होती है, अर्थात् गृहीत और मुक्त होते रहते हैं, उसी प्रकार यहाँ शब्द-जनित पद रूप-मणियाँ श्राती और जाती रहती हैं,- मुक्त-ग्राह्य होती रहती हैं। यहाँ पूर्व तथा उत्तर कथित वस्तुओं की श्रृंखला एक प्रमाण में होती है। पूर्वोत्तर कथित प्रत्येक वस्तुओं का यहाँ विशेषण रूप में समर्थन या निषेध किया जाता है । साथ ही प्रत्येक पूर्व- कथित विशेष्य और उत्तर कथित वस्तु का विशेषण रूप में समर्थन वा निषेध भी