काव्य-निर्णय कोई 'मेधावी' नाम के प्राचार्य हुए जिन्होंने 'उत्प्रेक्षा के लिए 'संख्यान' शन्द का व्यवहार किया था। भामह ने इसका खंडन करते हुए यथासंख्य को. उत्प्रेक्षा से प्रथक अलंकार मानते हुए लिखा है- "यथासल्यमथोत्प्रेक्षामलकारद्वयं विदुः । संख्यानमिति मेधाविनोत्प्रेशाभिहिता क्वचित् ॥ "भूयसामुपदिष्टानामर्थानामसधर्मणां । क्रमशो योऽनुनिर्देशो यथासंख्य तदुच्यते ॥ -काव्यालंकार ( भामह ) ८८, EE और वामन ने इसका लक्षण-"यथासंख्य क्रमेणैव ऋमिकाणां समन्वयः" ( जहाँ क्रमपूर्वक कहे गये पदार्थों के साथ क्रमपूर्वक ही कहे गये पिछले पदार्थों का यथोचित संबंध कहा जाय ) माना है । विश्वनाथजी कहते हैं- “यथासंख्य- मनूदेश उद्दिष्टानां क्रमेण यत्" अर्थात्, जहाँ कहे हुए पदार्थों का यदि फिर उसी क्रम से कथन हो तो वहाँ यथासंख्य अलंकार कहना चाहिये । भामह, वामन तथा विश्वनाथजी के लक्षणोदाहरणों में जहाँ कुछ तारतम्य ( साम्य) है, वहाँ मम्मटाचार्य का लक्षण इनसे कुछ विपरीत है । चंद्रालोक में एक दूसरा ही लक्षण मिलता है, यथा- ____ यथासंख्य द्विधार्थाश्चेन्मादेकैकमन्विता ॥" अर्थात् जहाँ संख्या-क्रम से कई कारकों और क्रियाओं का संबंध दिखलाया जाय, वहाँ यथासंख्य मानना चाहिए.... .।" ब्रजभाषा के अलंकार ग्रंथों में भी श्री चिंतामणि जी से लेकर अंतिम रीति-काल के प्राचार्य पद्माकार-ग्वाल तक 'यथासंख्य' के विविध परिभाषा-जन्य लक्षण मिलते हैं । चिंतामणिजी ने इसका लक्षण-"मन को अन्वइ जहाँ, बरन्यों कॅम-]म होइ" माना है, तो भाषा-भूषण में-"जथासंख्य बरनन-विष, वस्तु अनुक्रम-संग," और पद्माकरजी ने-"जहँ म सों बरननन कौ म सों अन्वै होइ" कहा है। दूलह कवि ने-“जहाँ मिकँन कौ मै ते लै बखाँने गुफ-जथासंख्य०.........” लक्षण माना है। श्राचार्य केशव ने इसे क्रमा- लंकार से ही संबोधन करते हुए कहा है-"आदि-श्रत भरि बरनिएं, सो क्रम केसौदास' । अस्तु, इससे भी क्रम-स्वरूप यथासंख्य की परिभाषा स्पष्ट नहीं हुई। अापके उदाहरणों से ज्ञात होता है कि जिसे अापने क्रम ( यथासंख्य ) माना है, उसे-ही परवती प्राचार्यों ने 'शृखला' वा 'एकावली' नाम दिया है और जिस 'गणना' को श्राप अलंकार मानते हैं, उसे पूर्व-पर के दोनों-ही प्राचाय नहीं मानते। ३२
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