४६६ काव्य-निर्णय रखे हैं। अन्य अलंकारों का उल्लेख वहाँ नहीं है। रुय्यक ने 'दीपक' को गम्य- मान औपम्यवर्ग में पदार्थ-गत के,“एकावली, कारण-माला, सार (उत्तरोत्तर), माला- दोपक" जो दीपक का ही मेद-विशेष है, को शृखला-बद्ध वर्ग में और "पर्याय तथा यथासंख्य" को वाक्य न्याय के बाह्य न्याय मूल वर्ग में माना है। इनके बाद कोई प्राचार्य-एकावलो के साथ कारण-माला, सार और माला-दीपक को शृखला-मूलक वर्ग में, पर्याय-यथासंख्य को वाक्य न्याय-मूलक वर्ग में और रत्नावली को 'गूढार्थ प्रतीति मूल वर्ग में मानते हैं। इसके अतिरिक्त एक और भी विकल्प मिलता है, जिसके अनुसार ये दासजी द्वारा वर्णित अठारवें उल्लास के अलंकार, यथा-दीपक "ौपम्य मूल, अर्थात् जिसमें सादृश्य गम्यमान (छिपा- हुश्रा हो) वर्ग में, पर्याय. यथासंख्य न्यायमूल वर्ग में', एकावली, कारण-माला, सार और माला-दोपक 'शृखला मूल वर्ग में, रत्नावली गूढार्थ-मूल वर्ग में और श्रावृत्ति-दीपक तथा कारक दीपक प्रकोण-वर्ग में विभाजित किये मिलते हैं।" उत्तरोत्तर को सभी ने 'सार' नाम दिया है तथा 'रसनोपभा' का पृथक वर्णन नहीं किया है। प्रथम जथासंख्य-अलंकार लच्छन जथा- पैहले कहे जु सब्द गुनि', पुनि म ते ता-रीति । कहिके और निबाहिऐ, 'जथासंख्य' करि प्रीति ।। वि०-“पहिले कहे गये शब्दों-द्वारा उसी क्रम तथा रीति से कह कर यथा- वत निर्वाह किये जाने पर-“यथासंख्य" अलंकार कहा जाता है। अर्थात् पूर्व- कथित वस्तुत्रों का जब उसी क्रम-द्वारा श्रागे भी वर्णन किया जाय तब यह अलंकार बनता है। संस्कृत ग्रंथों में यह अलंकार सर्व प्रथम भट्टि-प्राचार्य ने स्वीकार किया है, इसके बाद-भामह, दंडी, उद्भट, वामन और मम्मटादि ने...। वामनाचार्य ने इसकी 'क्रम' संज्ञा दी है और कहा है.-"उपमेयोपमानानां क्रमसंबंधः क्रमः" (उपमान-उपमेयों का क्रम से संबंध)। अर्थात् “पूर्व कहे हुए उपमेय और बाद में कहे गये उपमानों का जो क्रम से संबंध है-संबंध कराना है, वह "क्रम' वा यथासंख्यालंकार होता है -उपमेयोपमानानां चोहशिनामनु शिनां च क्रम- संबंध: क्रमः । श्री वामन से पूर्व भामह-श्रादि ने तथा पर में मम्मट-विश्वनाथादि ने इसे 'यथासंख्य' ही कहा है। कहा जाता है कि भामह श्राचार्य से प्रथम पा०-१. (का०) (प्र०) गॅनि...। (३०) गँन...।
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