पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५२९

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४६४ काव्य-निर्णय तीसरौ उत्तर-लच्छन जथा- उत्तर देवे' में जहाँ, प्रसनों परत लखाइ । 'प्रिसनोत्तर' ता'हू कहत, सकल सुकवि-समुदाइ । उदाहरन बंथा- ल्याई फूली साँझ को, रंग गँन में बाल । लखि ज्यों फूली दुपहरी, नेन तिहारे लाल ।। वि.-"भारती-भूषण (केड़िया कृत ) में उत्तर के गूढोत्तरं और चित्रोत्तर दो भेद मान कर प्रथम गूढोचर के 'उनीत प्रश्न" और निबद्ध प्रश्न जैसे प्रथम लिखे गये हैं, चित्रोत्तर के भी दो भेद-प्रश्नों के शब्दों में ही उत्तर और बहुत से प्रश्नों का एक ही उत्तर, का कथन किया है। श्लेष-गर्मित प्रश्नोत्तर का एक उदाहरण सेठ कन्हैयालाल पोदार ने अपनी "अलंकार-मंजरी' में बड़ा सुंदर दिया है, यथा- "सुबरन - खोजत हों फिरों, सुंदरि देस-विदेस । दुरलभ है ये समझि जिय, चितित रहों हमेस ॥" यहाँ सुबरन (सुवर्ण-सोना व सुंदर रूप, देह...) में श्लेष है और सुदरि संबोधन में प्रश्न निहित है कि 'तुम चिंतातुर किस लिये रहते हो... अतः उत्तर म्पष्ट है-सुबरैन खोजत०...। "इति श्री सकल कलाधरकलाधरवंसावतंस श्री मन्महाराज-कुमार श्री बाबू हिंदूपति विरचिते काव्य-निरनए-सुभावोक्ति- भादि अलंकार बरनॅनोनाम सप्तदसोल्लासः।" -०७-- पा०-१. ( का०) (३०) (प्र. ) दीवे...। २. ( रा. पु० नी० सी० ) तासो... {रा० पु० प्र०) वाहै...।