पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५१५

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४९० काव्य-निर्णय निसा - भरि निसा-पति, करिके उपाइ, बिन पाऐं रूप-बासर विरूप है खखायौ है। कहै. 'मतिरोम' तेरे बदन - बराबरी कों, भोदरस बिमल बिरचि ने बनाया है। दरप - न रखौ ताते दरपॅन कहियतु, मुकरि परत ताते मुकर कहायी है। "तुम नौव लिखावती हौ हम पै, हम नाँव कहा कहो लीजिए । भव नाव चले सिगरे जल में, थल में न चलै कहा कीजिए जूम 'कबि मंचित' औसर जो अंकती, सकती नहिं-हाँ पर कीजिए । हम तो अपनों बर पूजिती है, सँपने हूं न पी-पर पूजिऐ जू॥" "नैना-मति रे रसना, निज गुन लींन । कर तू पिय झाकारे, अजुगत कींन ॥" भाइके निकट वौ पीत - पटवारी भटू, अटपटे बेन बरजोर बतरात है। देत ना भरन घट, पट कों पकरि-रहत, नट लों नचाबै नेन नेक ना डरात है। मोह ते अधिक उर भोटत है लाँजन ते, लंगर निकट - हटके सों अधिकात है। घर • घर घेर सुने मन - हट जात है - री, पनघट जात ता को पॅन घट जात है। चहत दुरायो तो सों कौ-लगि दुराऊँ दैया, ____साँची हों कहों-री बोर, सुन सुख-कॉन दै। साँबरी - सौ ढोठा इक दौ तीर जैमनों के, मो-तैन निहारयो नीर-भरि अँखियाँन है। वा दिन ते मेरी-री दसा कों कछु बूझ मति, चाहे जो जिवायौ मोहि वही रूप दान है। हा हा करि पाँइ परों, रह्यौ नहिं जात बीर, पनघट जॉन दै-री, पॅन-घट जान है।"