काव्य-निर्णय ४७५ काव्यलिंग, सर्व प्रथम संस्कृत के उद्भट-श्राचार्य ने माना है, तदनंतर मम्मट और रुय्यक ने । श्राचार्य मम्मट ने इसका लक्षण-"कायलिंगं हेतोर्वाक्यपदा- यंता" (जहाँ वाक्यार्थ वा पदार्थ रूप से हेतु-कारण का वर्णन किया जाय वहाँ-काव्यलिंग) लिखा है और साहित्य-दर्पण में-"हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे कायलिंग निगद्यते" ( जहाँ वाक्यार्थ वा पदार्थ किसी का हेतु हो, वहाँ...) कहा है। श्रागे साहित्य-दर्पणकार कहते हैं-"कोई, कार्य-कारण भाव में अर्था- तरन्यास नहीं मानते, वाक्यार्थ-गत काव्यलिंग से ही उसे गतार्थ समझलेते हैं । यह ठीक नहीं, क्योंकि जैसा पूर्व में लिखा है- हेतु तीन प्रकार का ज्ञापक, निष्पा- दक और समर्थक. रूप में होता है । जहाँ ज्ञापक हेतु हो वहाँ अनुमानालंकार और निष्पादक हेतु में काव्यलिंग तथा समर्थक हेतु में अर्थातरन्यास का विषय समझना चाहिये", पर कुछ प्राचार्य कहते हैं कि हेतु - निष्पादक, ज्ञापक और समर्थक तीन प्रकार का होता है, ठीक है, किंतु यहाँ हेतु का तृतीय भेद ( समर्थक हेतु) समीचीन नही ज्ञात होता, क्योंकि इसमें कार्य-कारण-भाव न मिटने के कारण वह प्रथम भेद ( निष्पादक हेतु ) में समा जाता है । ____ काव्यलिंग और अर्थातरन्यास के विषय-विभाजन में यह भी कहा जाता है कि, अर्थातरन्यास में वाक्य सामान्य तथा विशेष में होते हैं - एक-दूसरे के समर्थक होते हैं और काव्यलिंग में दोनों वाक्य उक्त रूप न हो कार्य-कारण रूप में होते हैं। प्राचार्य मम्मट ने काव्यलिंग को "हेतु' या 'काव्य-हेतु' भी कहा है। दंडी और भोज ने इसे हेतु के अंतर्गत मान “कारक-हेतु" माना है। हेतु के भी भाव- श्रभाव-साधनादि कई उपभेद माने हैं। कविप्रिया ( केशवदास ) में 'हेतु' अलंकार दंडी-अनुसार माना गया है, पर केशवदासजी दंडी के हेतु का स्वरूप नहीं समझे, जिससे उदाहरण उससे पृथक् हो गया है । जो उदाहरण केशवदासजी ने दिया है, वह दंडी-कथित 'अभाव-साधन' हेतु-अलंकार का नहीं, विभावना का विषय-"मनसाधे ही साधन सिद्ध भयोई" बन गया है। क्योंकि यहाँ कारण के अभाव में कार्य का होना कहा गया है। इसी प्रकार 'भाव-अभाव हेतु का जो उदाहरण (जा दिन ते वृषभानु लली. ) कविप्रिया में दिया गया है, वह भी दंडी के 'चित्र-हेतु' का उदाहरण है, भाव हेतु का नहीं। महा कवि केशव के इस पद्य में कार्य-कारण पौर्वापर्य रूप 'अतिशयोक्ति' है, किंतु ऐसे उदाहरणों में अचार्य दंडी ने अतिशयोक्ति न मानकर चित्र-हेतु-ही माना है। परिकर और काव्यलिंग के प्रति भी इन प्राचार्यों का कहना है कि "परिकर" में. पदार्थ का वास्यार्थ के बल से जो अर्थ प्रतीत होता है, वही वाच्यार्थ को पोषित
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५१०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।