पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५०२

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काव्य-निर्णय ४६७ है और यहाँ इन वाचक शब्दों का प्रयोग उपमेयोपमान भाव (सादृश्य) के बिना साध्य को साधन - द्वारा सिद्ध करने के लिए निश्चित रूप से किया नाता है। "उपमान-प्रमाण वहाँ होता है -"जहाँ उपमान के सादृश्य से बिन-देखे हुए उपमेय का शान कराया जाय। इसी प्रकार 'शब्द-प्रमाण वहाँ-जहाँ शास्त्र व महाजनों के वाक्य प्रमाण-रूप में वर्णित हों । अथवा- ___“जहाँ सास्त्र अरु लोक के, वचन प्रमान-बखाँन ।' जिसमें अपने अंतःकरण-स्थित विश्वास के साथ किसी अर्थ का प्रमाण कहा जाय, वहाँ 'श्रात्म-तुष्टि 'प्रमाणालंकार' होता है और "अनुपलब्धि"-"जॉनि पर नहिं बस्तु कछु, अनुपलब्ध है सोह।" अर्थात् जिसमें किसी अर्थ की अप्राप्ति में उसके अभाव का प्रमाण वर्णन किया जाय । इसी प्रकार "संभव-प्रमाणालंकार वहाँ होगा, जहाँ-"संभवस्तु निमित्त न वस्तु संभावना यदि,” अर्थात् "जहँ संभव है बस्तु को संभव नाम सुहोह", ( जिसमें किसी श्रर्थ के संभव होने का प्रमाण-रूप में वर्णन किया जाय) जहां वस्तु की संभावना को जाय । यहां, संभव से कथितार्थ के वर्णन से तात्पर्य है, इत्यादि...। अर्थापत्ति प्रमाण वहां होता है-जहाँ किसी अर्थ का प्रमाण अन्यार्थ के योग से कहा गया हो, व्यर्थ कथित अर्थ अन्य के योग से स्थापित किया गया हो। अर्थापत्ति, मीमांसकों के अनुसार “जहाँ एक बात के कथन से दूसरी बात स्वतः सिद्ध हो जाय, वहाँ प्रमाण रूप मानी गयी है। अतएव काव्यार्थापत्ति से इसकी प्रथकता बतलाते हुए अलंकाराचार्यों का कहना है कि "काव्यार्थापत्ति में भी एक अर्थ से दूसरे अर्थ की सिद्धि होती है, पर वहाँ सिद्ध किया जाने वाला अर्थ वस्तुतः अकथित होता है और उसका निर्देश केवल कुछ शब्दों- द्वारा किया जाता है और यहां "सिद्ध होने वाला अर्थ स्पष्ट रूप में कहा जाता है, यही अंतर हैं। अथ प्रथम प्रमान-प्रत्यच्छ को उदाहरन जथा- बाल-रूप जोबनवती, भब्य - तरुंन को सग। दींनी दई सुतंत्रता, सती होइ किहि ढंग ॥ वि०-“पूर्ण यौवनवती अविवाहित वा विवाहित स्त्री का तरुण-पुरुषों के साथ स्वतंत्रता से मिलना प्रत्यक्ष में सती होने का ढंग नहीं कहा जा सकता, ___पा०-१. (३०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) दीन्हों दई सुतंत्र कै...।