काव्य-निर्णय १५ वि०-"अमिधा-'साक्षात सांकेतिक रूप से अर्थ का बोध करानेवाली
- क्रिया ( व्यापार ) को कहते हैं, जो कि कहीं संयोग से, कहीं असंयोग से, कहीं
बहुअर्थ-संयुक्त शब्दों के साहचर्य से, कहीं विरोध से, कहीं अर्थबल से, कहीं अर्थ के प्रकरण-ज्ञान से, कही प्रसंग से, कहीं समस्त वा अन्वित पद के अर्थ- बल (चिन्ह ) से, कहीं सामर्थ्य से, कहीं औचित्य वा योग्यता से, कही देश- बल से, कहीं काल-बल-भेद से और कहीं अन्य संनिधि से, लिंग से, तथा कहीं स्वर के फेर से और कहीं अभिनय से १४ प्रकार को जानी जाती है। इसमें मतभेद भी है। कोई इस ज्ञान को तेरह प्रकार का और कोई बारह प्रकार का ही मानते हैं, यथा- "है संजोग, बियोग अरु साहचरज सु बिरोध । प्रकरन-प्ररथ-प्रसंग पुनि, चिन्ह, सामरथ बोध ॥ भौचित्यहु पुनि देस-बल, काल-भेद, सुर-फेर । द्वादस अभिधासक्ति के, भेद कहें कवि हेर ॥" --काव्य-प्रभाकर-भानु, किंतु दासजी ने अभिधा के तेरह भेदों का हो कथन किया है, यथा- (१) संजोग ते 'दोहा' जथा- कहूँ होत 'संजोग' ते, एक-हि' अरथ प्रमाँन । संख-चक्र-जुत हरि कहें, बिसमै' होत न आँन ।।. (२) असंजोग ते 'दोहा' जथा- असंजोग ते कहुँ कहें, एक अर्थ कविराइ । कहें धुननजै धूम बिन, पावक जाँन्यों जाइ। वि०-"जब कि 'अनेकार्थी' शब्द के एक अर्थ का निर्णय किसी अभिन्न वस्तु के कारण किया जाय। जैसे "हरि" के अन्य अर्थ भी होते हैं, पर शंख और चक्र के संयोग से यहां विष्णु भगवान ही अर्थ लिया जायगा। इसी पा०-१. (प्र०) एकै । २. (का० प्र०) विष्णु होत नहिं भान । (भा. जी०) होत विष्णु को ग्यांन । (३०) बिष्णो होत न आँन ।
- काव्य प्र०-(भानु) पृ० ६८ ।