काव्य-निर्णय ४६१ वि० -"जहाँ इस कारण का यही कार्य कहा जाय तथा कार्य-कारण एक साथ वर्णन किये जाय वहाँ हेतु' अलंकार होता है। हेतु का अर्थ कारण है और कारण-वश कार्य होता है। कारण का फल कार्य है और कारण के अमंतर कार्य होता है । साधारणतया भी पहिले कारण का उल्लेख करने के बाद में उसके फलस्वरूप कार्य का कथन किया जाता है, क्योंकि हेतु-कारण समानार्थी हैं। अतएव कारण का कार्य के साथ तथा कारण के साथ कार्य के अभेद वर्णन में यह अलंकार होता है । यद्यपि यहाँ कारण-कार्य क्रमशः कहे गये हैं, फिर भी इसके वर्णन में उक्ति-वैचित्र्य वा चमत्कार-युक्त कथन होना चाहिये। कुवलयानंद में इसका लक्षण-"हेतोहंतुमता सार्थ वर्णनं हेतुरुज्यते" और साहित्य-दर्पण में भी शब्दाडंबर से यही "अभेदेनाभिधाहेतुर्हेतोहे तुमता- मह" ( हेतु-कारण और हेतुमान्–कार्य का अभेद से कथन करने में- हेतु ) कहा है। अतएव 'हेतु' जैसा दासजी ने कहा है, दो प्रकार का कारण के साथ कार्य के वर्णन में (जब कारण-कार्य का एक साथ वर्णन किया जाय) और कारण-कार्य के अभेद रूप वर्णन में (जब कारण-कार्य एक से, भेद-रहित वर्णन किये जांय ) होता है। हेतु के प्रति किन्ही प्राचार्य का मत है कि यह रूपक का अंग है, किंतु रूपक में उपमेयोपमान का अभेद कहा जाता है और इसमें कारण और कार्य का, अतः यह रूप से प्रथक है । इसी प्रकार कोई हेतु को काव्यनिंग के और कोई इसके प्रथम भेद को 'अक्रमातिशयोक्ति के अंतर्गत मानते हैं। काव्यलिंग में ज्ञापक कारण से कथितार्थ का समर्थन किया जाता है, हेतु में नहीं। यहां उनका एक साथ वर्णन किया जाता है । अक्रमातिशयोक्ति के 'अक्रम' शब्द के न्युत्पति मूलक अर्थ से यह स्पष्ट है कि वहाँ कारण-कार्य का पौर्वापर्य क्रम के बिना एक संग हो जाना वर्णन किया जाता है और यहाँ दोनों (कारण-कार्य) का वर्णन- मात्र ही होता है। अर्थात् अक्रमातिशयोक्ति में कार्य कार्य की पूर्णता रहती है, यहाँ अपूर्णता..." अथ प्रथम हेतु उदाहरन जथा- सुधि गई सुधि की, न चेत रहयौ चेत-ही में, लाज तजि दींनी लाज, साज सब गेह को। गारी भए' भूषन, भयो है उपहास-बास, 'दास' कहै देह में न तेह रहयौ तेह को ।। पा०-१. (का०) (३०) भई...।
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