४६० काव्य निर्णय करेगा।" यहाँ सेठ कन्हैयालाल पोदार का कहना है कि-"यह काव्य का सर्वस्व वक्रोक्ति को ही मानने वाले 'राजानक कुतक' का दुराग्रह मात्र है, क्योंकि प्रकृतिक दृश्यों के स्वाभाविक वर्णनादि भी वस्तुतः चमत्कार पूर्ण और मनोहर होते हैं।" _____एक बात और वह यह कि अलंकार के कुछ मयों में-रूप, वेष तथाभूषण-रचना, जैसे-नख-शिखादि के वर्णनों में 'जाति' नाम के एक प्रथक् अलंकार की उत्पत्ति की गई है, और कहीं इसे स्वभावोति के अंतर्गत-ही मान लिया गया है। अतएव जाति में और स्वभावोक्ति में कुछ ऐसी भिन्नता जो चमत्कार पूर्ण हो, नहीं दिखलायी पड़ती, जिससे ये दोनों अलंकार भिन्न रूप में माने जाँय । अतएव दासजी ने इन्हें भिन्न न मान कर एक-ही स्वभावोक्ति के दो भेद, जाति और स्वभाव रूप से मान पृथक्-पृथक् वर्णन किये हैं।" अथ प्रथम स्वभावोक्ति--"जाति बरनन को उदाहरन जथा- लोचन लाल, सुधाधर बाल, हुतासन-ज्वाल सु भाल' भरें हैं। मुंड की माल गयंद को खाल. हलाहल काल कराल गरें हैं। हाथ-कपाल, त्रिसूल जो हाल, भुजॉन में ब्याल-बिसाल जरे हैं। दीन को चाल,' अधीन को पाल, अधंग में3 बाल-रसाल धरें हैं। वि०-"यहां जाति रूप शंकर भगवान के अंग और भूषणों का वर्णन है, बो स्वाभाविक है--सुदर है।" द्वितोय सुभावोक्ति-सुभाव बरनन को उदाहरन जथा- बिमल अँगोंछि - पोंछि भूषन सुधारि सिर, आँगुरिंन - फोरि हुँन-तोरि-तोरि डारतीं। उर नख - छद, रद - छर्दैन में रद • छद, पेखि-पेखि प्यारे को मखति' मिमकारती॥ भई अँखों-ही अबलोकति लला को फेरि, अंगँन • संवारती दिठाना - दै निहारतीं। गात की गुराई पर, सेहेज भुराई पर, सारी सुंदराई पर राई-लोन बारती ॥ पा०-१.(प्र०) सुभाव ..। २. ( का० ) (३०)(प्र०) ( स० पु० प्र०) दीन दयान.... ३. (का० ) (प्र०) मो... ४. (का०) कोर... '(१० सा०)..फोरि तोरि-तोरि त्रिन-ढारती । ५. (६०) कति...। ६. (२० सा०) भएँ-नखोंही अबलोकत लली को फेर.... -२० सा० (दास)१० १३ । हितकारिनी सस्त्री-उदाहरन ।
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