४५६ काव्य-निर्णय बर, तरुवर तुम' जॅनम भौ, सफल बीस-हों बीस। हमें न त्यों विय-बाग को, कियो प्रसोको ईस ॥ अस्य तिलक बर वृच्छ को स्त्री भावरी (परिक्रमा) देति है, मह प्रसोक को जब बात मारति है, तब वो फूलत है, याते बननीय बिसेस्य (बद-वृष) साभिप्राय भयो या खि परिकरांकुर सुद्ध भयो। वि०-"परिकरांकुर-अलंकार से अलंकृत अनेक सुमधुर सूक्तियां विहारी लाल कृत 'सतसई' में मिलती हैं यथा- "बामा, भाँमा, कामिनी, कहि बोलो प्रानेस । प्यारी कहत न लाज-हीं, पाबस चलत बिदेस ॥" "बाल-बेलि सूखी सुखद, इहि रूखे-रुख-धाम फेरि डइन्ही कीजिऐ, सुरस सींचि र्घनस्याम ॥" "कियो सबै जग कॉम-बस, जीते जिते मजेइ । कुसुम-परहिँ सर-धनुष कर, भगहॅन गहन न देइ ॥" विहारीलाल जी का प्रथम दोहा शुद्ध परिकरांकुर-अलंकार का उदाहरण है, जो वामा, मामा, कामिनी और प्यारी-शन्दों के श्लेषार्थ से झलक रहा है। द्वितीय दोहे में रूपक और श्लेष से मिलकर परिकरांकुर 'घनस्याम' शब्द के द्वारा चमक रहा है । तीसरा दोहा, कहने को तो निरुक्ति से परिपुष्ट काव्यलिंग का अंग (उदाहरण) बन रहा है, फिर भी 'अगहन' के 'ग्रहण न करने अर्थ के कारण विशेष्य के साभिप्राय हो जाने से यहाँ भी परिकरांकुर दर्शनीय है। "इति श्री सकल कलाधर-कलाधरयंसावतंस श्री महाराज कुमार श्री बाबू हिंदूपति-विरचिते "काम्य-मिरनए" सूर्णमा- लंकार बरननो नाम षोडसोध्यायः॥" पा०-१.(का०) तुव.... (२०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) तुम...। २. (का०) (प्र०) है...! (40)निसेहूँ.... (सं० पु० प्र०) ही...| ३. (का०) यो... (40)(सं० पु०प्र०) या पिय-माम...। (प्र०) न अविया बाग...I (स पु० प्र०) न भव या बाग को.... .
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४९१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।