४५१ काम्य-निर्णय बिहारी लाल जी कहते हैं - "कोंन सुने, कासों कहों, सुरति बिसारी नाह । बदाबदी जिय लेति है, ए बदरा बराह ॥" ससि-बदनी मोसों कहत, हों सँमुझी निज बात । नेन-नलिन पिय राबरे, न्याइ निरखि नै जात ॥ अथवा- "चंदा-बरनी-नारि, हँसि जुपिय मोसों कहीं। पिय, मरों कटारी-मारि, चंदा-बरनी क्यों कहीं ॥" ___ अथ परिकरांकुर-लच्छन जथा-- बननीय जु बिसेस है, सोई साभिप्राइ। 'परिकर-अंकुर' कहत हैं, तिहिं प्रबीन-कबिराइ॥ वि०-"जहाँ वर्णनीय विशेष्य अभिप्राय सहित वर्णन किया जाय, वहाँ "परिकरांकुर' अल कार कहते हैं । अर्थात् ऐसे विशेष्य-पद का प्रयोग किया जाय जिसमें कुछ अभिप्राय हों-उस पद की क्रिया से विशेष रूप से वह संबंधित हो। यों तो यह अलंकार 'परिकर' के अंतर्गत-ही है, यथा-'परिकर-अंकुर' । किंतु परिकर में विशेषण और परिकरांकुर में विशेष्य साभिप्राय-युक्त होता है, यही इसकी पृथक्ता है। चंद्रालोक (संस्कृत) में इसका लक्षण-"साभिप्राये विशेष्ये- तु भवेत्परिकगंकुरः" (जहाँ विशेष्य का अभिधान किसी विशेष अर्थ का द्योतक हो, वहां परिकरांकुर) कहा है।" उदाहरन जथा- भाल में बॉम के है के बली, बिध्यो' बाँकी भोंहे बरुनीन में प्राइकें। है के अचेत कपोलँन-छ, बिछले अधरा को पियौ रस धाइ के। 'दास जुहास-छटा मॅन चोंक, छिनेक लोंठोदी के बोच बिकाइके। जाइ उरोज-सिरेंचदि कूद्यौ, गयौ कटि सों त्रिबली में पन्हाइ के। अस्य तिलक इहाँ लुसोपों को सँम प्रधान संकर है। पा०-१.(०) विधि...। (का०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) विधी.. । २. (का०)(३०) (प्र०) ध्रुवे.... ३.(का०)(०) (सं० पु० प्र०) विदिल्यौ...। ४.(प्र०) विठुरे भवरा को सुधा पियौ था... (सं० पु० प्र०)...अपरा में सुधा पियो...। ५. (प्र०) घरीक....(सं० पु० प्र०) पोंकि के, नेक में.... ६. (का०) (२०) में...। ७. (का०) (३०) (प्र०) नहार.... .
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४९०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।