पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४८१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय कलहांतरिता के उदाहरण-स्वरूप 'देव कवि' का यह छेद ब्रजभाषा-साहित्य में सबसे सुंदर माना जाता है, यथा- "प्रेम-समुद्र परयौ गैहरे, अभिमान के फैन रयो गहि-रे मैंन । कोप-तरंगन ते बैहरे, अकुलाइ पुकारत क्यों बहि-रे मन ॥ 'देव जू' लाज-जहाज तें कूद, भज्यो मुख-मूदि अजों रहि-रे मैंन । जोरत-तोरत प्रोति तुही, अब तेरी #नीत तुही सहि-रे मॅन ॥" "मोहन-मीत सभीत गौ, बखि तेरौ सनमान । भब सु दगा दे तू चल्यो, अरे मुद्दई मौन ॥" अथ विवृतोक्ति लच्छन जथा- जहाँ अरथ गूढोक्ति को कोऊ करै प्रकास । "बिवृतोक्ति' तासों कहें, सकल सुजन जन 'दास' । . वि०-"जहाँ गूढोक्ति ( कही हुई गुप्त बात ) का कोई प्रकाश करे-छिपा हुअा गुप्त भाव (कवि-कल्पना-द्वारा ) प्रकट किया जाये वहां 'विवृतोक्ति' कही जाती है। विवृतोक्ति का वर्णन सर्व प्रथम कुवलयानंद में ही मिलता है । वहाँ इसका लक्षण-"विकृतोक्तिः श्लिष्टगुप्त कविनाविष्कृत यदि" ( कवि-कथन-द्वारा श्लेष से छिपाई हुई वस्तु प्रकट करना) कहा गया है, क्योकि विवृतोक्ति-खुली हुई, उघाड़ी हुई उक्ति-अर्थ की द्योतक है । कोई-कोई इसका अर्थ-व्याख्या, अथवा टीका-संयुक्त बात भी कहते हैं । इसलिये जहां रहस्य की बात स्वतः स्पष्ट कर दी जाय वहाँ 'विवृतोक्ति' । अर्थात् श्लिष्ट-शब्दों के प्रयोगादि-द्वारा चातुर्य से छिपाये हुए रहत्य को कवि-द्वारा प्रकट कर खोलना-ही उक्त अलंकार है । विवृ- तोक्ति में प्रथम उक्ति-चातुर्य से कुछ गूढ़ बात कही जाती है और पुनः उसे खोल दिया जाता है। विवृतोकि-गूढार्थ-प्रतीत मूल अलकार है और उक्ति-चातुर्य मूल से भी संपन्न है । इसलिये इसे स्वतंत्र अलकार मानना श्रेयस्कर है, किंतु पोदार कन्है- यालाल जी का कहना है कि "विवृतोक्ति के कुवलयानंद में दिखाये गये उदाहरण व्याजोक्ति-उदाहरणों के समान है, अतः हमारे विचार से (वह) व्याजोक्ति से प्रथक् नहीं, जब कि कुवलानंदकार ने इसके उदाहरण में ब्याजोक्ति पा०-१. (का० ) (वे ० ) (प्र० ) सुवि...। ।