काव्य-निर्णय ( पंडितराज जगन्नाथ ) इसके अन्य-द्वारा दिये गये उदाहरण में पर्यायोक्ति मानते हैं तो कोई निदर्शना के उदाहरण में ललित । कुवलयानंद, जो इसका जनक-स्थान है, के द्वारा प्रस्तुत उदाहरण जैसे-"बलित निर्गतेनीरे सेतुमेषा- चिकीपति" अर्थात् "सेतु-बांधि करिहो कहा अब तो उतन्यौ अंबु" अथवा- "सेतु बांधिवौ चहँतु है, अब तू उतरें बारिश में ललित न मान उद्योतकार निदर्शना मानते हुए इसे इस (निदर्शना के अंतर्गत) के अंतर्गत ही मानते हैं- 'लोके-लोके मतिर्भिन्ना'...इसे-ही कहते हैं।" ललित-उदाहरन जथा- कंट-कटीलका बाग़न में बनी 'दास' गुलाबँन-दूरि कै दीजै । आज ते सेज अंगारन की करौ, फूलन को दुख-दाँनि गॅनीजै॥ ऊधौ, महोरिनी के गुरु हैं, इनकी सिर घायुस माँन-हीं लीजै। गुंज के गंज गहौ, तजि नालँन, डारि सुधा, विष-संग्रह कीजै ॥ बोलँन में कल' कोकिल के, कुल की कलई कब धों उघरैगी। कोंन घरी इन भोंन-जरे, उजरेन' कों बसंत-प्रभाँन भरंगो।। हाइ कब याकूर-कलंकी -निसाकर के मुख छार परेगी। - प्रॉन-प्रिया इन ने न कों, किहि यौस कृतारथ-रूप करेंगी। --'वि०-"ललितालंकार से सुशोभित प्रस्तुत धर्मी "कलहांतरिता नायिका" के प्रति कही गयी,सखि-द्वारा पति के मनाने पर भी न मानने का उपालंभ देते हुए के रूप में प्रस्तुतार्थ का वर्णन न करती हुई; उसके प्रतिबिंब-रूप श्राती हुई लक्ष्मी के आने पर दरवाजा बंद करने का प्रस्तुार्थ वर्णन रूप 'गुलाब सिंहबी (बूदोनरेश) की यह उक्ति भी सुंदर है, यथा- "बात सुने नहिँ त् जैन की, मन की करतूतन में मैंन-जावै । बाम-मलाम नहीं समझे, उरमी-सुरझी न 'गुलाब' लखावै ॥ काज-काज सँमान गर्ने, अपकीरति-कीरति-सी भल भावे । हकसि ,घर भावति सपति, हान द्वार - किंबार लगावै॥" पा०-१. (३०) बयो...। (प्र०) बबी...। २. (०) हो उनको सिर...। (स० पु. म०) हो, उनके...। ३. (का०) (३०) किल...। ४. (का० ) उजरे को.... (३०) उतरे कों ५. (१०) उजरे में.... ६. (का०) (३०) (प्र०) यह... ७. ( का० ) कलंकि..... (वे.)( पु०प्र०) निसाचर...।
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