पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४७६

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४४१ काव्य-निर्णय वि०-"दासजी का गूढोक्ति-उदाहरण-स्वरूप यह छंद "स्वयंदूती" नायिका का है । दासजी के इन गूढोक्ति लक्षण-उदाहरण के प्रति पोद्दार कन्हैयालाल जी का अलंकार-मंजरी में कहना है कि "दासजी ने जो गूढोक्ति के लक्षण-उदा. हरण दिये हैं वे अपूर्ण हैं, क्योंकि गूढोक्ति के लक्षण ( जो संस्कृत-ग्रंथों ) में 'अन्योद्देशक पाक्य को अन्य के प्रति कहा जाना है वह अवश्य कहना चाहिये।" अस्तु, पोद्दारजी का उक्त श्रादेश यदि मान लिया जाय तो गूढोक्ति के संस्कृत- ब्रजभाषा के अनेक उदाहरणों को पृथक कर दिया जायगा, जो चमत्कार-पूर्ण है, कवि प्रतिभा के जीते-जागते उदाहरण हैं । साथ-ही वे गूढोक्ति के उदाहरण स्वरूप अत्युत्कृष्ट उक्तियाँ हैं, जो अन्योद्देशक......जैसा पोद्दारजी ने कहा है, नहीं हैं । उदाहरणार्थ दासजी का ऊपर वाला छंद जिसमें गूढ-अभिप्राय से गुफित नायिका की पथिक के प्रति स्वयंदूतिका के रूप में उक्ति है - कथन है । गूढोक्ति, शब्दार्थानुसार पर (अन्य) से किसी की उपस्थिति और अनुपस्थिति दोनों में हो सकती है। जैसा दासजी के इस उदाहरण में । यहाँ सामीप्य में सख्यादि का व्यवधान नहीं है, फिर भी गूढोक्ति का यह सुंदर उदाहरण है । जहाँ सख्यादि-रूप विविध व्यवधान होंगे और पोद्दारजी को निर्देशक अन्योद्देशक .. वाक्यावलि होगी, वहाँ भी गूढोक्ति कही और मानी जायगी। नीचे 'अन्यो- शक०' और 'अन्योद्देशक रहित' वचन विदग्धा तथा स्वयंतिका रूप नायिकाओं के दो उदाहरण उद्धत किये जाते हैं, जो गूढोक्ति के अति सुंदर उदाहरण हैं, 'अन्योद्देशक०' वचनविदग्धा, यथा -- "कातिकी-हाँन कों लोग चले, अपनों-अपनों सब-ही सँग-जोरयौ। राखि गई घर-सूने बिसासिन सासु जंजाल ते मोहि याँ छोरयौ । है तो भली, घर-ही जो रहो तुम, यों कहि ननदी हूँ निहोरयौ। प्यारी परौसि न सों को टेरि, परौसी के काँन सुधा-सौ निचोरयौ।। "सासरें जाइ का दिन ते रह्यो, कांदि दियौ निज मंदिर भैया। दाऊ पदा-ऊ दहें जुर-सों, परसों लई कातिकी की मग मैया ॥ पाही मसूस मरों, का करो, 'रिखिनाथ' परोसिन मैं परों पैया। कोऊ कहूँ न मिलै मग में, हो सवार-ही जाति दुहान गैया ।" स्वयंतिका, यथा- "को हो,-जोतिसी हो, कछु भागम बखानत हो, धाम धाम नाम जग - बाहर हमारी तौ।