काव्य-निर्णय गूढोक्ति का अर्थ गुप्त-उक्ति, छिपा हुश्रा कथन, और के व्याज से और से कही जाने वाली बात, अन्य के प्रति वक्तव्य को निकटस्थ व्यक्ति से गुप्त रखकर कहना, इत्यादि......। यदि इस लक्षण को और भी स्पष्ट किया जाय तो कहा जा सकता है कि जिससे वास्तव में कोई बात कहना है वह कथन के समय अकेला नहीं है और भी व्यक्ति उपस्थित हैं, उस समय स्पष्ट कहने से वह बात छिपी नहीं रहेगी, इसलिये वह जिसके प्रति कहना है उसे सुनाते हुए निकटस्थ व्यक्ति से इस प्रकार बात कही जाय जिससे दूर का व्यक्ति जिसको लक्ष्य में रखकर कही गयी है वह तो समझ जाय, पर समीपस्थ न समझे.........। ___ गूढोक्ति के प्रति काव्य-प्रकाश ( संस्कृत ) के "उद्योत-टीकाकार" नागोजी भट्ट ब्याजोक्ति की व्याख्या के साथ कहते हैं--"गूढोक्ति ध्वनि काव्य है, अलंकार का विषय नहीं, क्योंकि इस (गूढोक्ति ) में दूसरे को सूचित करते हुए स्पष्ट नहीं कहा जाता; व्यंग्यायं के द्वारा ध्वनित होता है । अलंकार तो वहाँ बनते हैं, जहाँ व्यंग्याथ उक्ति के द्वारा स्पष्ट कर दिये जाय (दे० का० प्र० पूना-संस्करण पृ०-१४३)। ____ अप्रस्तुत प्रशंसा के भेद सारूप्य-निबंधना जिसे कोई-कोई 'अन्योक्ति' भी कहते हैं और गूढोक्ति के लक्षण समान प्रतीत होते हैं। उदाहरणों में भी कोई विशेष पृथक्ता प्रतीत नहीं होती इत्यादि......। किंतु अप्रस्तुत-प्रशंसा के उक्त भेद में प्रस्तुत का बोध कराने के लिये अप्रस्तुत का वर्णन होता है, साथ-ही वहां प्रस्तुत के प्रति किसी प्रकार का उपदेश करने का तात्पर्य गर्भित रहता है और गूढोक्ति में जिससे कुछ गूढ रहस्य कहना हो, वह उससे न कह कर समीपस्थ दूसरे से कह कर उसे ( जिससे कहना है ) श्लिष्ट शब्दों के नियम से जतलाया जाता है । गूढोक्ति में श्लेष होते हुए भी समीपस्थों को छलने के रूप में विशेष चमत्कार होता है, इसलिये श्लेषालंकार से भी इसकी पृथक्ता स्पष्ट दीखती है और इसीलिये गूढोक्ति की "गूढार्थ-प्रतीति-मूल" वा "उक्ति-चातुर्य-मूल" वर्ग में गणना की जाती है।" गूढोक्ति-उदाहरन जथा- 'दासजू' न्योते गए' घर के सब, काल्हि ते हाँ न परोसिनों भावति । हों-हीं अकेली कहाँ लों रहों, इन अंधी-अधुन' ज्यौ बैहराबति ।। पीतंम छाइ रमो परदेस, देस इहे जू सँदेस न पावति । पंडित हो, गुन-मंडित हो, महि-देव तुम्हें सगुनोंति-हौ भावति ।। पा०~१. ( का०) (३०) ( स० पु० प्र०) गई कछु पौस को... (प्र०) गई घर की सब,.... २. (का० ) (३०) (प्र. ) अथैन को ज्यो . । ३ (स० पु० प्र०) रहे....
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