काव्य-निर्णय "पॉम परीक निवारिऐ, कलित-जलित-मलि-पुज। जमुना-तीर तमाल-तरू, मिलत मालती-कुंज।" यह भी गूढोत्तर अलंकार का उदाहरण है। दो उदाहरण (वचन-विदग्धा- स्वयंदूतिका के) और, जैसे- "ठादी बतरात, इतरात-ही परोसिन ते, जैसी तिय दूसरी न परब - पछाँह में । दीठि परिगऐ तहाँ सुदर सैंजॉन कॉन्ह, औचक - ही प्रघट पूछ्यौ कर पर - छाँह में । 'सोमनाथ स्मों-हीं प्रौन-ध्यारे को सुनाइ कसो, तिय में सखी सों तरुनाई के उछाह में । बंसीवट - निकट हमें तू मिलियो-री, कारिह- काविक नहाँऊँगी तरैयँन की छाँह में ॥" स्वयंदूतिका- "बसौ पथिक, या पौर में, यहाँ न माबै और । यै मेरी, यै सासु की, ये ननदी की और ॥" अस्तु एक बात और, वह यह कि गूढोत्तर अलंकार वहीं बनेगा-वहीं कहा जायगा, जहां किसी की जिज्ञासा (कुछ पूछने ) पर गूढ ( कुछ खास मतलब प्रगट करने वाला ) उचर दिया जायगा । दासजी कथित जैसे उदाहरणों में यह अलंकार नहीं हो सकता, क्योंकि 'उत्तर' शब्द उसको चुगली खा रहा है। उत्तर शब्द वहीं अलंकृत होगा, जब कि किसी के कुछ पूछे जाने पर, कुछ कहा जायगा -उत्तर दिया जायगा, यथा- "हस के दिन तो मिलोगे, यह किया मैंने सवाल । सोचकर कुछ देर में जालिम ने कहा-'मुश्किल है।" अथ गूढोक्ति-अलंकार जथा- अभिप्राइ-जुत जहँ कहिय, काहू सों कछु बात । तह 'गूदोति' बखाँन हीं, कवि, पंडित औदात ।। वि०-"जहाँ साभिप्राय किसी से कुछ बात कही जाय,-किसी दूसरी बात के बहाने हृदयस्थ गूढ बात (अभिप्राय) प्रकट की जाय, वहाँ पंडित और कवि 'गूढोक्ति' मानते हैं। अथवा- जहां किसी दूसरे के बहाने से किसी दूसरे को उपदेश दिया जाय वहाँ यह अलंकार होता है। संस्कृत-अलंकार-प्रथों में गूढोक्ति का लक्षण-"गूहोक्किरम्मोहेश्वं बेचवम्यं प्रति कथ्यते" (अन्योदशक बास्य अन्य दूसरे के प्रति कहे जाय) मिलता है।
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