पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४७३

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काव्य-निर्णय "जाते हो तो जाइये, मुख-मुर न देखो इस तरफ । मह सितम, हम पर न कोजे बाद पाने के लिये ॥" अथ गूढोत्तर-अलंकार लच्छन जथा- अभिप्राइ के' सहित जो ऊतर काहू दे । ताहि 'गूढ-उत्तर' कहें. जॉन सुमति-जन लेइ॥ वि०-"जब किसी को साभिप्राय ( गूढ ) उत्तर दिया जाय-किसी गढ़- भाव से युक्त उत्तर दिया जाय, वहाँ 'गूढोत्तर' अलंकार कहा जाता है। यही लक्षण संस्कृत-अलंकार-नयों में इस प्रकार मिलता है- "किंचिदाकूतसहितं- स्थाद्गृढोत्तरमुत्तरम्" । अतएव यह अलंकार "अपन्हव-मूलक वर्ग में विभक्त किया जा सकता है।" अस्य उदाहरन जथा-- नीर के कारन आई अकेलिऐ , भीर-परें सँग कोंन को लीजै । छा-हँ न कोऊ, गयौ दिबसौ-ऊ, अकेले उठात-घरा पट-भीजै ।। 'दास' इतै लिरुवान को ल्याइ, भलें जल-न्हाइऐ, प्याइए. पीजै । ए तौ निहोरौ हमारौ करौ', घट-ऊपर नेक घरा' धरि दीजै ।।* वि०-'गूढोत्तर-अलंकार के उदाहरण प्रायः "वचन-विदग्धा" (बचनँन की रचनांन सों, जो साधे निज काज ) या "स्वयंदूतिका" ( रमणार्थ स्वयं दूति- पन करने वाली) नायिका के वर्णनों में किये जाते हैं, जैसे ऊपर लिखा दासनी का उदाहरण । श्रस्तु, दासजी का यह उदाहरण नायिका-भेदानुसार वचन-विदग्धा नायिका की उक्ति स्वरूप है । स्वयंदूतिका १ यथा- पा०-१. ( का० ) (३०)त... ( स० पु० प्र०) अभिप्राइस जुन किरें, ऊतरु...। २. ( का० )(३०) (प्र.) कोऊ...। ३. (का० ) (३०) (प्र.) कहत...। ४. (३०) अकेली पै...। ५. (३०) (सं० पु०) नया.... (प्र०) न चौस कछु है, अकेले...। ६. (का०) (प्र.) ( ०नि० ) उठाऐं घरौ...। (३०) उठाइ पड़ो...। (रा० पु० प्र०) उठातो...। ७.(३०) लिरबाहु को... ( नि०) गऊओन कों.... (का. ) भलो जल न्हाईए. प्याईऐ पोजै । (३० ) भलौ जल न्याश्वी, प्याजै...। (प्र०) (सं० पु० प्र०) भलो जल छोह को प्यारऐ....। (रा. पु० प्र०) भलें जल छाह में प्याइऐ...1६. (का०) (३०) खला...। (१०नि० ) हरी...। १०. (का०) (३०) (प्र.)(सं० पु० प्र०) घटी. (भू.नि.).... . नि० (दास) पृ०-३४, १०१ । वचन-विदग्धा-नायिका।