४३४ काव्य-निर्णय 'कालिदास' ताही समें निपट प्रवीन लिया, ___ काजर लै भौति - माहि चित्रक बनाया है। ब्यात लिखी सिंघनी, निकट गजराज लिख्यौ, जोंनि ते निकर, छीना मस्तक पै धायौ है।" गोस्वामीजी की रम्य रचना पर कुछ व्याख्या, अलंकार-निरदर्शन अनुचित है, क्योंकि वह भक्त-हृदयों का गुप्त शिरोभूषण है । कालिदासजी की रचना में यह अलंकार कुछ गूढ़ है । अस्तु, 'समस्त रति-कोविदा' नायिका ने नायक को भ्रमित देख प्रसवती सिंहनी का बालक समीप में खड़े गजराज के मस्तक पर लिखकर (सूक्ष्मालंकार-द्वारा ) यह जनाया कि जिस प्रकार सिंह - सावक जन्म पाते हो अपने स्वभावानुसार गजराज पर आक्रमण करता है, वही क्रिया स्वाभाविक रूप में हमारी है।" अथ पिहित-अलंकार लच्छन जथा- जहाँ छिपी पर-बात कों, जाँनि जॅनाबै कोइ । तहाँ 'पिहित' भूषन कहैं, छिपी' पहेरी सोइ ॥ वि-"जहाँ कोई किसी को (गुप्त) बात को जानकर जनाबे-प्रकट करे, वहाँ 'पिहित' अलंकार होता है । भापा-भूपण में भी पिहित का लक्षण इसी प्रकार- "जहाँ किसी की छिपी ( गुप्त ) बात को जानकर कोई छिपा भाव प्रकट किया जाय" वहाँ 'पिहित', यथा- 'पिहित' छिपी पर-बात कों, जाँनि दिखायै भाइ ।" । ___ ब्रजभाषा में पिहित के ऐसे-ही मिलते-जुलते लक्षण हैं । ये लक्षण चंद्रालोक. ने अनुसार हैं । संस्कृत-अलंकार ग्रंथों में पिहित के शब्दार्थ (आच्छादन करना- किसी दूसरे पदार्थ को ढक लेना ) को लन में रख "जहाँ किसी श्राश्रय का एक- गुण दूसरे असमान गुण को आच्छादित कर ले और उसे अन्य समझ कर कार्यतः प्रकट कर दे" वहाँ 'पिहित-अलकार' कहा है', क्योंकि इसमें एक श्राश्रय (अधिकरण ) में रहने वाला गुण अपनी प्रबलता से दूसरी वस्तु को-ऐसी वस्तु को जो समान न हो, ढक लेता है । लक्षण में यहाँ 'असमान' का प्रयोग है- कथन है, जो उसे मीलितालंकार से पृथक करता है। मीलित में समान गुण-द्वारा दूसरी वस्तु का तिरोधान होता है, पिहित में नहीं । पिहित में एक गुण दूसरे गुण को, जो सदृश न हो-ठीक उस जैसा न हो, अपनी प्रबलता से ढंक लेता पा०-१. ( का० ) (प्र०) छपी...। (३०)(सं० पु० प्र० ) छपे .... ,
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