काव्य-निर्णय संस्कृत के अलंकार-ग्रयों में जैसा पूर्व में लिख चुके हैं—सूक्ष्म, चेष्टा और आकरा-द्वारा लक्षित होने के कारण उभय-भेदात्मक है । अतएव आकार-लक्षित- सूक्ष्म-अर्थ के ज्ञाता-द्वारा साकूत चेष्टा की जाने में कुवलयानंदकार 'पिहित' अलंकार मानते हैं। यही नहीं, वहाँ (कुवलयानंद में ) इगित श्राकार के अतरिक्त जहाँ उक्ति-द्वारा भी, सूक्ष्म-अर्थ के प्रदर्शित किये जाने पर भी उक्त अलंकार माना है।" ब्रजभाषा-साहित्य में इसका एक-ही भेद कथन किया गया है, उदाहरण तीनों के मिल जाते हैं।" अथ सूच्छमाल कार उदाहरन जथा- आज चंदभागा वा' चंद-बदनी पै अली२, निरतन करति आई मोर के परन कों। वाहि धों सँममि कहा बेनी-गहि रही तब, बौ-हू' दरसायौ - री बंधूक के दरॅन कों। 'दास' वहि' परस्यौ कहा धों उरजात, उहि- परस्यौ कहा धों दुहूँ. आपने करन कों। नागरी-गुनागरी चलति भई ताही छिन, ___गागरी लै तीर जमुना जल-भरन कों॥ वि०-"सूक्ष्मालंकार के दो नीचे लिखे छंद भी हमारी समझ से बहुत सुंदर हैं । प्रथम है, गो० तुलसीदासजी का यथा- "गौतम-तिय-गति सुरति करि, नहिं परसत पद पानि । मन-बिहँसे रघुबंस-मॅनि, प्रीति अलौकिक जाँनि ॥ और द्वितीय ब्रजभाषा के कवि कालिदास का, यथा- "प्रम-समागम के भौसर मबेली-बाल, ___ सकल कलौन करि प्यार को रिझायो है। देखि चतुराई, मॅन - सोच भयौ पीतम के, लनि पर - नारि मन - संभ्रम-भुलायौ है । पा०-१. (का) (सं० पु० प्र०) उहि... (३०) (प्र०) वहि.. | २. ( का०) (30)(प्र.)(सं० पु० प्र०) भाली. । ३. ( का०) (प्र.) आए...। ४. ( का०) (३०) यह...। (प्र. ) वह...। ५. ( का०) (३०) (प्र.) (सं० पु० प्र०) वाहू...! ६.(का०)(६०) यहि.... (सं० पु० प्र०) इहि...। ७.( का०) (३०)(प्र०) होऊ...I (सं० पु०प्र०) उहूँ...। . ( का०)( )(सं० पु० प्र०) रीती...! २८
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