काव्य-निर्णय ४२१ हो जायगी, क्योंकि उसकी अशोभनता स्वाभाविक नहीं, दूसरे के कारण से हैं- अन्य के सानिध्य से है । अतः विनोक्ति भी सहोक्ति की भांति दो प्रकार की बन जाती है। वैसे भी विनोक्ति सहोक्ति की विरोधी है, इसलिये इसके दो उदाहरण होने ही चाहिये थे । ब्रजभाषा के अलंकार-ग्रंथ 'भाषा-भूषण' में महाराज जसवंत- सिंह इन दोनों भेदों को सोदाहरण इस प्रकार कहते हैं, यथा- "है 'बिनोक्ति है भाँति की, प्रस्तुत कछु बिन छीन । श्री सोभा अधिकी लहै, प्रस्तुत कछु बिन हीन ॥" “ग खंजन-से, कंज-से, भंजन-बिन सोभे न । बाला सब [न सरस तू, रंच रुखाई है न ॥" श्रर्थात् विनोक्ति दो प्रकार की है, प्रथम वहाँ “जहाँ प्रस्तुत ( उपमेय) किसी के बिना क्षीण ( अशोभन ) हो" तथा दूसरो वहाँ "जहाँ प्रस्तुत उपमेय किसी वस्तु से हीन ( रहित ) हो कर अधिकाधिक शोभा पाए" और इन उभय- विनोक्ति के क्रमशः उदाहरण जैसे-"नायिका के नेत्र खंजन और कमल से सुंदर होते हुए भी बिना अंजन के शोभा युक्त नहीं, अर्थात् वे अंजन लगाले ने के बाद अशोभन नहीं रह जायगे, अपितु उनकी शोभा अधिक बढ़ जायगी। इस प्रकार "वह बाता, तनिक भी रुखाई न होने के कारण --"सब गुँन सरस" है, सर्व गुण संपन्न है । यद्यपि यहाँ बाला (नायिका ) स्वतः प्रकृत्या सर्व गुण- सपन्न है,-सौंदर्य-युक्त है और उसमें रुक्षता ( कठोरता) भी होती तो वह अशोभवन हो जाती, अतः रुक्षता का अभाव बतलाकर कवि ने यहाँ उसकी अशोभानता दूर कर दी-उसकी शोभा को इस अभाव के वर्णन से और बढ़ा दिया। यहाँ 'बिना' शब्द जो विनोक्ति का वाचक है, उसके कथन किये बिना भी उस ( बिना ) के अर्थ को "है न" शब्द से ब्यक्त कर वही भाव भर दिया गया है। विनोक्ति के कभी-कभी ऐसे उदाहरण भी अधिक चमत्कार पूर्ण मिल जाते हैं, जिनमें दोनों वस्तु एक-दूसरे के अभाव में शोभा-हीन कही जाती हैं, दोनों की व्यर्थता कही जाती है, यथा - "निरर्थक जन्म गतं नलिन्या यया न हष्ट तुहिनाशुकिंवम् । उत्पत्तिरिंदोरपि निष्फलैव एष्टा विनिद्रा नलिनी न येन ॥" -साहित्य-दर्पण कमलिनी का जन्म व्यर्थ-ही गया, जिसने शीतल किरणों वाले चंद्र-बिंब को न देखा और चंद्र की उत्पत्ति भी निष्फल-ही हुई जिसने प्रफुल्लित कमलिनी के दर्शन न किये।" ऐसे स्थलों पर विनोकि-मानना पंडितराज बगनाथ जी का भी
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