काव्य-निर्णय ४१६ "दास जू कोंन कुतर्क कियो करै, जीव है एक ही दूसरौ नाही। 'पोन लै अंतक भान सिधारै, के मारै मँनोभव लै सिर-माहीं॥ वि०-"विकल्प का उदाहरण सेठ कन्हैयालालजी प्रयुक्त अलंकार-मंजरी में, बीकानेर के अद्वतीय साहित्यिक महाराज पृथ्वीराजसिंह की उक्ति जो प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रतापसिंह के प्रति कही-लिखी गयी थी, उद्धत की गयी है, यथा- "पट मूछा-पाण के पटकू निज-तन-करद । दीजै लिख दीवाण, इंण दो-महली बात इक ॥" अर्थात् मैं "मूछों पर हाथ पटक ताव दृ, या अपने शरीर पर तलवार 'पटकू ( मारू), कृपया इन दोनों में एक बात लिख भेजिये।" अथ सहोक्ति, विनोक्ति औ प्रधिषेध अलंकार लच्छन जथा- कछु-कछु संग 'सहोक्ति" कछु बिन सुभ-असुभ 'बिनोक्ति'। यै नहि, ये परतच्छ-ही, कहिऐ 'प्रतिषेधोक्ति'। वि०-"दासजी ने इस छंद में तीन - "सहोक्ति, विनोक्ति और 'प्रतिषे- 'धोक्ति (प्रतिषेध ) के लक्षण, क्रमशः-"जहां कुछ-कुछ संग कहा जाय, बिना सुभासुभ के कुछ कहा जाय तथा ये नहीं, ये प्रत्यक्ष रूप से कहा जाय," कहे हैं, अर्थात् जहाँ एक साथ-ही दो वाक्यों का सह-श्रादि के बल पर श्रानंद को बढ़ाते हुए मनोरंजकता के साथ वर्णन किया जाय, जहाँ कोई प्रस्तुत को किसी वस्तु के बिना शुभ और अशुभ रूप में कहा जाय" तथा–जहाँ किसी प्रसिद्ध अर्थ का-निषेध का, किसी विशेष अभिप्राय से निषेध किया जाय, वहाँ क्रमशः 'सहोक्ति', 'विनोक्ति' और 'प्रतिषेध' वा प्रतिषेधोक्ति कहे जाते हैं। सहोक्ति, सह --साथवाले भाव की उक्ति होती है, यह अलंकाराचार्यों का मत है, क्योंकि यहाँ सह-संगादि शब्दों के सामर्थ्य से एक अर्थ के अन्वय का बोधक शब्द दूसरे अर्थों के अन्वय का बोधक भी होता है। अर्थात् एक अर्थ का प्रधानता से तथा दूसरे अर्थ का अप्रधानता से एक-ही क्रिया में अन्वय कराता है और जहां दोनों दोनों अर्थ प्रधान होते हैं, वहाँ 'दीपक' वा 'तुल्ययोगिता' अलंकार माने जाते हैं, क्योंकि इन दोनों ( दीपक-तुल्ययोगिता ) में भी उपमे- योपमानों का पृथक्-पृथक् वा एक साथ प्रधानता से एक क्रिया के साथ अन्वय होता है । यह अन्वय सहोक्ति की भांति वहां प्रधान और प्रधान भाव से नहीं होता, जोकि सहोक्ति में सह-श्रादि शब्दों के चमत्कारपूर्ण अर्थ में होना चाहिये, पा०-१. (३०) ( स० पु० प्र० ) सिधारी के मारी...!
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