पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४४५

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४१० काव्य-निर्णय कहै 'कवि तोष' छिन भटक न लै हों को कंचन - कटोरें अटा खीरि-भरि धरि हों। एरे काग, तेरे सुभ सगुन - संजोग भाज, मेरे पति आवे तो बचन तें न टरि हों। करती करार, तौ न पैहले करोंगी सब, अपने पिया कों फेरि पाछे अंक - भरि हों।" "सुनके भामद उनकी श्रजखुदरफ्ता हो जाते हैं हम । पेशवा लेने को जाना, कोई हमसे सोख जाय ॥" अथ समुच्चै अलंकार लच्छन जथा- एकै करता सिद्धि के', औरों होंइ सहाइ । बोहोत होंइ इक बारि करि द्वै अँनमिल इक-भाइ । ऐसी - भाँतिन जाँनिएँ, 'समुच्चयालंकार' । मुख्य एक लच्छिन वहै', बौहौत भएँ इकबार ॥ वि०-"दासजी ने 'समुच्चय' तीन प्रकार का माना है। प्रथम वहाँ 'जहाँ कार्य-सिद्धि के लिए एक कर्ता पर्याप्त होते हुए और भी उस प्रथम के सहायक हो जाय।" द्वितीय समुच्चय वहाँ “जहाँ एक बार ही बहुत से कर्ता व कारण एक- त्रित हो कर कार्य करें" तथा इसी प्रकार तृतीय समुच्चय वहाँ “जहाँ दो अन- मिल (पृथक-पृथक भाव वाले) कत्तो एक होकर किसी कार्य को सिद्धि करें।" काव्य-प्रकाश (संस्कृत) में श्री मम्मट ने इन तीनों भेदों के लक्षण-रूप कहा है- "तसिद्धि हेतावेकस्मिन्यत्रान्यतरकर भवेत् । समुच्चयोऽसौ० । तस्य प्रस्तुतस्य कार्यस्य एकस्मिन्साधक स्थिने साधकांतराणि यत्र समवंनि स ममुच्चयः।" अर्थात् "प्रस्तुत कार्य की सिद्धि के एक हेतु के उपस्थित रहने पर भी जहां (उसको सिद्धि के लिए) और भी अनेक कारण कहे गये हों, वहाँ समुच्यय...।' साथ ही वहाँ इस प्रथम भेद के और भी भेद करते हुए कहा है-“यही समुच्चय सद्, असद् और सदसत् वस्तुओं के एकत्रित होने पर भी होता है और वहाँ-"सत्वन्यो युगपद्या गुणक्रियाः (एक प्रकार का और समुच्चय जहाँ गुण और क्रिया दोनों का एक साथ होना कहा जाय) के बाद "गुणौ च क्रिये च गुणे. ___पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) कों.... २. (का०) (०) (प्र०) (सं० पु. प्र.) कै . | ३. (का०)() (प्र०) यही,।