४०६ काव्य-निर्णय पुनः उदाहरन जथा- हुतो तोहि देनों हरि-हि, जौ ३ विरह-संताप । कुच-संकर दे बीच बलि, तो क्यों कियौ मिलाप ॥ संभाबना पुनः उदाहरन जथा- आई मधु • जाँमिनी, न पाए मधुसूदन जू, राति नौ सिराति, द्यौस - बीतत बलाइ में । करते भली, जौ प्रॉन करते पयाँन पाज, ऐसे में पाली और देखिती नौँ उपाइ में । कहा कहों 'दास' मेरी होती तबै निसा जब, राहू है" निसाकर' कों प्रसती बनाइ में । हर-ह केंजारि डारचौ. मँनमथ, सो हरिजू के- मँन-मथिबे कों होती मँनमथ जाइ में । वि.-"असंभव अलंकार का निम्नलिखित छंद, जो किसो अज्ञात कवि को रम्य-रचना है सुंदर है, यथा- "यों दुखदै ब्रज-बासिन कों, व्रज कों तजि के मथुरा सुख पे हैं। वे रसकेलि-बिलासँन की, बन-कुंजन की बतियाँ बिसर हैं। जोग-सिखावन को हम कों, बहुरयौ तुमसे उठि धावन ऐ हैं। ऊधौ, नहीं हम जानत-हीं, मन • मोहन कूवरी-हाथ विक हैं।" और संभावना का, यथा- "बाम-बाहु-फरकत मिलें, जो हरि जीवन-मूरि। तो तो ही सों भेंटि हों, राखि दाहिनी-दूरि ॥" -विहारी-सतसई तोष कवि प्रणीत संभावना से संयुक्त 'श्रागत्पतिका' नायिका (प्रियतम-प्रागमन की सूचना मिलने पर प्रसन्न होने वाली ) के कथन से उल्लसित यह छंद - भी सुंदर है, यथा- "जनी-गढाइ, चोंच सोंने-सों मढ़ाइदै-हों, कर-पर बाइ पर रुचि सों सुपरि हों। पा०-१. (का०)(40) (प्र०) दीवे...। (सं० पु० प्र०) दीवो...। २. (सं० पु० प्र०) यह... ३. (सं० पु० प्र०) प्रायो...। ४. (का०)(३०) (प्र०) ऐसे में न पाली और देखती उपाय में। ५. (३०) (स० पु० प्र०) के निसाकर...। ६. (का०) (वे.) निसाकर ग्रासती बनाइ में । ७. (का०)(३०) (प्र०) (२० पु० प्र०) जारि गरि, मनमय हरि जू के...।
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