पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४४३

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४०८ काव्य-निर्णय मंजरी, भारती-भूषण और अलंकार-रत्न में तो मिलता है, पर संभव वा संभावना का नहीं। ब्रजभाषा-अलंकार प्रयों में प्रायः ये दोनों ही अलंकार मिलते हैं। अलंकार-सर्वस्व (रुय्यक-मंखक ) और काव्य-प्रकाश ( मम्मट ) में असंभव अलंकार जैसे उदाहरण 'विरोधालंकार' के अंतर्गत दिखलाये हैं। कन्हैयालाल पोद्दार ने 'असंभव' की यह व्युत्पत्ति ( लक्षण) लिखी है-"किसी अर्थ-सिद्धि की असंभवता वर्णन किये जाने को 'असंभव' कहते हैं।" यह लक्षण कविवर मतिराम जी के अलकार-प्रय 'ललित-ललाम' के अनुमार है, यथा- "जहाँ अर्थ के सिद्धि कौ, सभव बचन न होह । तहाँ 'असंभव' होत है, वरनत हैं सब कोइ ॥" केशवदास जी ने असंभव को 'असंभावितोपमा' रूप में मानते हुए 'संभावना' नहीं माना है। भाषा-भूषण में संभावना के प्रति सह-उदाहरण कहा गया है- “जौ यों होइ तो, होइ यों, 'संभावना' विचार । बक्ता होतो सेस तौ, लहितो तो-गुन-पार ॥ पद्माकरजी ने असंभव-संभावना के--"सु 'असंभव' जु असंभबित, कारज भयो दिखात" तथा 'जु यो होइ तौ होइ यो, यह संभाबन जॉन" श्रादि लक्षण दिये हैं।" प्रथम असंभव उदाहरन जथा- छबि - मैं है है कुबरी, पबि है हैं ए अंग। ऊधौ', हम जॉन्यों न ये, तुम है हौ हरि-संग॥ पुनः उदाहरन जथा- हरि-इच्छा सब ते प्रबल, विक्रम सकल प्रकाथ । को जाँनत लुटि जाँइगी, अबला अरजुन-साथ ।। अस्य-तिलक इहाँ अर्थातरन्यास के संकर को संकर है। अथ संभावना-अलंकार उदाहरन जथा- कस्तूरी-थपिनाभि मृग, वाहि" दियो विधि' मीच । में विधि हो ? तो उहि घरों, खल-जी न के बीच ।। पा०-१ (३०) उद्धव.... २. (का०) (३०) (स० पु० प्र०) किन जान्यों लुटि...! १. (रा० पु० प्र०) जांनी...। ४. (का०) (प्र०) विधि.....(३०) अंड विषि...। ५. (२०) (प्र.) (स० पु० प्र०) नादि दयो मृग मीच । ६.(का०) मृग...।