काव्य-निर्णय ४०५ ऐसे में 'दास' बिसासिनि दाजी, जगाई डुलाइ किंवार-जैजोरा। हाइ अकारथ भौ सजनी, मिलियो ब्रजनाथ को हाथ को हीरा ॥ वि०-"दासजो का यह छंद विषाद वा विषादन (क्योंकि काव्य-निर्णय की प्रतियों में दोनों हो नाम मिलते हैं, पर शुद्ध नाम इसका "विपादन" ही है ) अलंकार की सान पर चढ़ा नायिका-भेदानुसार 'स्वप्न-दर्शन' का वर्णन बहुत सुंदर है। अतः श्राप का यह छंद नायिका-भेद के संग्रह प्रथों में दासनी के 'शृंगार-निर्णय' के अनुसार 'सुदरी-तिलक' (भारतेंदु ), 'सुदरी-सर्वस्व' (पं० मन्नालाल) और काव्य-प्रभाकर (पं० जगन्नाथ प्रसाद भानु) श्रादि कितने-ही ग्रंथों में "स्वन-दर्शन" के उदाहरणों में ही संकलित मिलता है, जिससे इसकी सुंदरता असंदिग्ध है। साथ-ही तत्तत् स्थानों पर नीचे लिखे पाठानुसार है। निम्न-लिखित पाठ शृंगार-निर्णय का नहीं, काव्य-निर्णय का है । काव्य-निर्णय में मूल तथा पाठांतर में दिया हुश्रा पाठ है । शृंगार-निर्णयानुसार पाठ इस प्रकार है- "मोहन भायौ इहाँ सपने, मुसिकात और खात बिनोद सों बीरौ । बैठी हुती परजंक में होंहूँ, उठी मिलिवे कहँ कै मैंन - धीरौ ॥ ऐसे में 'दास' बिसासिन दासी, जगायो दुलाइ किंवार - बजारौ । मुमै भयौ मिलिबी ब्रजनाथ को, एरी गयौ गिरि हाथ की हीरौ ॥ स्वप्न-दर्शन पूर्वानुराग के-"श्रवण, चित्र, स्वप्न और प्रत्यक्षादि चार दर्शनों में तीसरा दर्शन है । स्वप्न-दर्शन के अखाड़े में भी ब्रजभाषा के कवियों ने अनेक कलाबाजियों के साथ उत्पात मचाया है । वह उत्पात देखने लायक है, जैसे- "माए.कॉम्ह द्वार पाली, बेगि उठि देखौधाइ, काहू में बात कही भानद-सुधा-मई । केतिको दिनों की हिऐं तन बुझाइवे कों, हों-हूँ "परसाद' प्यारे - देखन तहाँ गई। पा०-१. (सु. ति०) (सु० स०) (का० प्र० ) बिसासिनी...। २. ( का० ) (३०) (प्र. ) ( स० पु० प्र०) ( नि० ) जगायो.... ३. (३०) दुलाइ...। (रा० पु० नी० सी० ) हलाइ... ४.( का० )(३०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) ( ०. नि०) (म ति) (सु० स०) ( का० प्र०) जंजीरो। ५.( का० ) (०नि०) (सु. ति०) (सु० स०) ( का० प्र०) झूठो भयो मिलियो बननाय को, परी गयौ गिरि हाथ की हीरो।(0) होइ काय गयो सजनी, मिलिबी ब्रजनाथ को हाय को हीरी।६.(प्र.) (सं० पु० प्र०) हीरौ। . .नि. (वास) पृ. ९६, २७ । सु० ति० ( भारतेंदु) पृ० १९४, ६६१। ० स० ( मनालाल) १० १८६, ४ । का०प्र० (भा० ) १० ४२६ ।
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४४०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।