पूर्वोक्त "समाधि' में भी कर्ता के कुछ यत्न करते हुए अकस्मात् कारणांतर की प्राप्ति से सुगमतापूर्वक कार्य हो जाता है और यहाँ बिना उपाय किये ही वांछितार्थ की सिद्धि मिलती है।" अथ दुतिय प्रहरन को उदाहरन जथा- जा'-परछाँही लखन कों, हारे परि-परि पाँइ । भाग-भलाई राबरी, बही मिली अब आइ ॥ श्रस्य तिलक इहाँ बांछित थोरौ लाभ पति-रूप दुतीय प्रहरन है। जाकी ( केवल ) परछाँही-हूँ देखिबे कों-हीं पाँइ परि-परि हारे वही भाग की भलाई (अच्छाई) ते अपने आप माइके मिली सो 'बांछित थोरौ लाभ-प्रति के रूप में प्रघट है। वि०-"बांछित थोरौ लाभ-अति" रूप द्वितीय प्रहर्षण का मतिराम कृत उदाहरण भी सुंदर है, यथा- "चित्र में बिलोकसि-ही लाल को बदन बाल, जीते जिहि कोटि चंद सरद पुनींन के। मुसिकॉन अंमल, कपोलन कै रुचि द- चमकें तरोनन के रुचिर चुनींन के॥ पीतम - निहारयौ बांह - गहत अचानक ही, जामें 'मतिराँम' मन सकल मुनीन के। गाढ़े गही लाज में, न कंठ-हू फुरत बन, मूल वै फिरत नेन बार - बरुनींन के॥" अथ तृतीय प्रहरन को उदाहरन जथा- भोर-हीं आइ सखी सों निहोरि के, राधे कह्यौ मोहि मीत मिलावै । ताहि" तकाइ के भोंन गई वौ, आप कळू करिबे कों उपावै ॥ ता-ही' सँमें तह माधौ गए, दुख-राधे-बियोग को बाहि सुनाई। पाइकें सूनों निलै-मिले , नों, बढ्यो सुख-पूनों दुहूँ उर-लाबै ।।. पा०-१. (प्र.) जो...। २. (सं० पु० प्र०) आप मिली वो आइ । (प्र. ) वहै...। ३.( नि०) नि...। ४. (का०) (३०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) (१० नि०) जनी सों...। (३०) मिलायो। ५.(० नि०) ता हित कारने भोंन...। (३०) उपायौ । ६. (V० नि०) वास तहीं चलि मागे गए, दुख राधे वियोग की ताहि । (३०)सुनायो । ७.(का०) (०)(प्र.) मिल.... म. (का०) (३०) (प्र०) बदै .... ६. (का०) (३०) (३०) दूनों.... (०) प्रायो।
- नि० (दास) पृ० ३८, ११२-नुदिता-उदाहरण ।