काव्य-निर्णय छाती" रूप अल्प फल से प्रकट है। यहाँ लक्षण में 'योहि' का अर्थ "कारण विशेष से नहीं, अनायास-ही प्राप्त होना इसी प्रकार है" और ध्वन्यार्थ-"तुच्छ" है-अल्प है । प्रहर्षण के अन्यथार्थ ( जहां इच्छित फल की प्राप्ति बिना यन हो जाय ) का उदाहरण पीयूषवर्षी श्री जयदेव कृत 'गीतगोविंद' का यह- "मेघेर्मेंदुरमंबर०..." श्लोक जिसका ब्रजभाषानुबाद निम्नलिखित छंद है, सुंदर है-उपयुक्त है, यथा- "मेघन सो नभ छाइ रह्यो, बॅन-भूमि तमालॅन सों भई कारी। साँझ भई उरि है घर याहि दया-करिके पोहचाबहु प्यारा ॥ यों सुनि नद-निदेस चले दुहुँ, कुंजन में हरि-माँनु-दुलारी। सोई कलिंदी के कूल इकत की, केलि हरै भव-भीति हमारी ॥" विहारीलाल का नीचे उद्धृत दोहा भी इस 'प्रथम प्रहर्षण' ( उपाय के बिना ही उत्कंठितार्थ की सिद्धि का होना ) का सुंदर उदाहरण है- "कर-मुंदरी की पारसी, प्रतिबिब्यौ प्यो पाइ। पीरि-दिऐ निधरक लखै, इकटक दोठि लगाइ॥" अथवा- "खिचे मान-अपराध ते, चलिगे बढ़े अचेंन । जुरत दीठि सजि रिस खसी, हँसे दुहुँन के नेन ॥ अर्थात् “सखी की सिफारिश और दूती के उपाय-बिना ही मेल हो गया. इससे अच्छा (प्रथम ) प्रहर्षण और क्या होगा!" इति श्री स्व. पं० पदमसिंह शर्मावचनात्...। रीति-काल के प्रति प्रतिभावान् कवि 'पद्माकर' का नीचे लिखा उदाहरण भी प्रथम प्रहर्षण का सुंदर उदाहरण है- "गोकुल की गलिन-गलीन में फैली बात, . कॉन्हें नंदरांनी वृषभान • भान न्याहतीन 'कहै' पद्माकर' यहाँ-ई त्यों तिहारौ चले, ब्याह को चलॅन यहै साँवरौ सराहती। सोचति कहा हो, कहा करिहें चबाईन ए, मॉनर की भवली न काहे अवगाहती। प्यारी उप-पति सु होत अंनुएला, तुम्ह- प्यारी परकीया ते स्वकीया होंन चाँहती।" उत्तमादूती द्वारा नायिका के प्रति प्रहर्षण-अलंकार से अलंकृत कितने सुंदर मिलाप के लिये वचन हैं...। २६
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