काव्य-निर्णय ३६५ इन बातन तेरी गयौ म कळू, उन-हीं डैहकायौ परी' अपनों । जिन'हीरा अमोल दियौ भौ लियौ,ये द्वे-पल को तो प्रेम-पनों। वि०-'परिवृत्ति अल कार के रोचक उदाहरण ब्रजभाषा में कम मिलते हैं, और जो मिलते हैं, उनमें परिवृत्ति के लक्षणानुसार न्यूनाधिक्यता श्रा जाती है, फिर भी विहारीलाल का निम्नलिखित दोहा लोकोक्ति (अंगुलिदाने भुजं- गिलसि) रूप ललित लोच से पगा हुअा इस अलकार का सुंदर उदाहरण कहा जा सकता है, यथा- "छुवै छिगुनी पोहचौ-गिलत, अति दीनता - दिखाइ । बलि-बॉमन को ब्योंत लखि, को बलि तुम्हें पत्याइ ॥ उर्दू कवियों के भी कुछ अशार इस ( परिवृत्ति ) अलकार के मिल जाते हैं, जैसे- "दिल लेके मुफ्त, कहते हैं कुछ काम का नहीं। उलटी शिकायतें हुई, अहसान तो गया ।" "दर्द-दिल अब्बल तो वह भाशिक का सुनते ही नहीं। और जो सुनते हैं, तो सुनते हैं फ़िसाना की तरह ॥" खत तुम्हारा हमको पहुँचा, है फकत इतनी रसीद । वाह, क्या लाया है, कासिद मेरे दफ्तर का जवाब ॥" अथ 'भाविक' अलंकार लच्छन जथा- भूत-भविस्यत बात कों, जहँ बोलत ब्रतमाँन । 'भाविक' भूषन कहत हैं, ता को सुमति-सुजॉन ।। वि०- "भाविक का लक्षण 'दासजी' द्वारा कथित इस लक्षण से भाषा-भूषण का अधिक स्पष्ट है, चुस्त है और भाषा की सफेयत से भी सुंदर है, यथा- "भाबिक, भूत-भविष्य जो, परतछ कहै बनाइ" वा "बताइ" । वर्तमान की दुर्गति "व्रतमान" ने सारा मजा किरकिरा कर रखा है । फिर भी 'ब्रतमान' (दासजी) और "परतई' (म० जसवंतसिंह) एक-ही थैली के चट्ट बट्ट है, कुछ भी अंतर नहीं। पा०-१. ( का०)(३०)(प्र०) (सं० पु० प्र०) अली...| २. ( का०)(३०) निज होरी अमोल दयौ नौ लयो,। (प्र०) निज...दयौ नौ लयो...। ३. ( का० ) (५०.) (प्र०) भवित्यहु ।
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