१६२ काव्य निर्णय सँमाधि-उदाहरन जथा- धीरज-धरि कित' करति अब, मिलँन-जतँन' की चाह । होंन चॅहत कछु चौस में, तो-मोहन को ब्याह ॥ पुनः उदाहरन जथा- काहे को 'दास' महेस-महेसुरी, पूजिबे - काज प्रसूनँन - तूरति । काहे को प्रात-न्हाइके'-री, बहु दॉनन दै ब्रत - संजम • पूरति ।। देखि-री, देखि, भटू, भरि-नेनन, कोटि-मॅनोज मँनोहर-मूरति । ए-ही हैं लाल-गुपाल चली, जिहि-लागि रही दिन-रेंन बिसूरति ।।* वि०--"समाधि-अलंकार से समलकृत 'रघुनाथ कवि' की यह उक्ति भी अनूछी है, जैसे- "प्यारौ चल्यौ-परदेस सुन्यों, मैंन-माल-मनोरथ की बहु गू हैं। राण्यौ सँनेह चहें तिहि ौसर, लाज-समाज हठै मुंह-म॥ हे 'रघुनाथ', कहा कहों भाग की, चाह्यो मनोज कछु कियौ हूँ। एते अचानक - ही दरसे चॅन, औ बरसे दस - बीसक बुदें।" अथ परिवृत्त अलंकार-लच्छन जथा- कछु लैबौ१० - दैबौ कन, ता को बिनमै जाँन । अलंकार 'परिवृत्त' है, बरनत' सुकबि-सुजॉन ॥ वि०-"जहाँ विनमय रूप में कुछ लेने-देने का कथन किया जाय वहाँ अच्छे-सुजान कवि "परिवृत्ति" अलकार मानते हैं । परिवृत्ति का अर्थ है-अदला-बदला, लेन-देन, विनिमय, परिवत नादि । एक वस्तु देकर दूसरी वस्तु का लेना परिवर्तन कहलाता है । यह परिवर्तन सम- पा०-१. (का० ) (३०)(प्र.) (सं० पु० प्र०) धीर धरहि कत करहि.... २. (३०) जनन...। ३. (१० नि० ) पूजन...। ४. ( का० ) (सं० पु० प्र०) (०) अन्हानन कै बहु...। (प्र०) अन्हान के तू बहु...। (शृ.नि.) नहानि कै बहु...। ५. (का.)(३०) (स० पु० प्र०) ( नि.) मैंगोठि के नेनेंन...। ६.( स० पु० प्र०) (रा० पु० का० ) मनोज-सी मोहन...। ७.(प्र.) भाए हैं। . ( का०) (३०)(म.) ( निक) रहै...। ६. (सं० पु० प्र०) राति...। १०. (का०) (३०) लीपी-बीवो... (म०)...लीपी-बीवी अधिक. ताके बदलें...। ११. ( का०) (३०) परिक्षाचालकार १२. (प्र.) तहँ...। १३ । का०)(३०) ताही कहत मजान ।
- नि० (दास) पृ०७४, २२० । सखि-कर्म के अंतर्गत-संदर्शन। ..