काव्य-निर्णय ३६१ मिलन ते, सुखद होत जहँ काज।" संस्कृत में-"समाधिः सुकर कार्य कारणां- सरयोगतः ( समाधि उसका नाम है, जहाँ कतिपय अन्य कारणों के योग से कार्य सुगम हो जाय-काव्य-प्रकाश-मम्मटाचार्य ) कहा है। यह और मतिगम का लक्षण, जैसा उसका पाठांतर-"सुकरु होत जहँ काज" मिलता है, एक है। इसकी व्याख्या करते हुए-वृत्ति देते हुए, काव्य-प्रकाशकार कहते हैं-"अन्यान्य- हेतुत्रों की सहायता से जहाँ पर प्रारंभ किये कार्य को कर्ता, बिना यत्न के संपादन करे वहाँ 'समाधि अलंकार' होता है।" श्राप से मिलती-जुलती-ही परिभाषाएँ प्रायः अन्य संस्कृत के अलंकार-ग्रंथों में दी गयी हैं। समाधि का अर्थ व्युत्पत्ति से-कार्य को भले प्रकार, अच्छे प्रकार करना, अथवा सुखपूर्वक किया जाना है, जो काक-तालीय न्याय से अकस्मात् दूसरे कारण या अन्य कर्ता की सहायता से प्रधान कर्ता द्वारा प्रारंभ किया हुआ कार्य सुख- पूर्वक, अनायास संपन्न हो जाता है। इस लिये इसका लक्षण कोई-कोई आकस्मिक कारणांतर के योग से कर्ता को कार्य की अनायास सिद्धि होना भी करते हैं (अलंकार-मंजरी-पोद्दार पृ० ३०५)। समाधि-अलंकार का सर्व प्रथम वर्णन भोज ने सरस्वतीकंठाभरण (संस्कृत) में किया है, अतएव वे इसके जनक हैं। इसके बाद मम्मट और रुय्यक ने 'काव्य- प्रकाश' और 'अलंकार-सर्वस्व' में इसे अपनाया है। बाद को इस ( समाधि ) की परंपरा निरंतर चलती रहो । ब्रजभाषा में भी यह उपरोक्त ग्रंथों से ही पाया, यह निर्विवाद है। प्राचार्य दंडी और महाराज भोजराज ने अपने-अपने ग्रयों में इसका नाम 'समाहित' दिया है । साथ-ही समुच्चय (जहाँ अनेक पदार्थों का समुच्चय-समूह एक समय में एक साथ होना वर्णन किया जाय--दे० यही उल्लास, आगे समुचचय अलंकार ) और समाधि की भिन्नता दिखलाते हुए संस्कृत-अलंकाराचार्यों का कहना है--"समुच्चय में सभी कारण एक साथ मिलकर एक कार्य करते हैं, एक कर्ता के होते हुए अन्य ( दूसरे ) कर्ता परस्पर स्पर्धा से एकत्रित हो जाते हैं और समाधि में एक कार्य पूर्ण करने में यथेष्ट कारण होते हुए भी दूसरे कारण बाद में अनायास मिलकर उस कार्य को सुगमतापूर्वक कर देते हैं-अर्थात् यहाँ योग्यता प्राप्त करने वाला एक ही साधक होता है, अन्य साधक अचानक काकतालीय-न्याय से सहायक हो जाते हैं। समुच्चय में अन्य कर्ता स्पर्धा-भाव से वही कार्य सिद्ध करने में संमिलित होते हैं, और यहाँ ( समाधि में ) यथार्थ कर्ता एक-ही होता है, अन्य कर्ता तो अचानक श्रा जाते हैं।"
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