२६. काव्य-निर्णय अथ तृतीय सँम-“उद्यम करि पायौ सोई उत्तम" को उदाहग्न जथा- जो कॉनन ते उपजि के, कॉनन देति जराइ। ता पाबक सों उपजि चॅन, हँन पाबक-हि जाइ ।।* वि०-"दासजी के इस उदाहरण के प्रति द्वितीय सम ( जिसमें कारण अनुकूल ही कार्य हो) मानकर केड़िया जी ( भारती भूषण-रचयिता) ने-- “यहाँ भी अपने उत्पादक कानन (वन) को जला देने वाला पावक कारण है, जिससे उद्भूत घन (बादल) कार्य अग्नि को बुझा देने वाला है, अतः उसके अनुकूल-ही वर्णन हुअा है" कहा है जो विपरीत है-अनुप्रयुक्त है। कारण दोनों पूर्वार्ध-उत्तरार्ध में "उपजि' क्रिया उद्यम की-ही द्योतक है, इसलिये यह उदाहरण द्वितीय का नहीं, तृतीय सम का ही है।" पुनः उदाहरन जथा- मधुप, तुम्हें सुधि लेन कों, हम पै पटए स्याँम । सब सुधि ले, बेसुधि' करी, अब बैठौ किहि कॉम ॥ वि०-"तृतीय सम रूप राजस्थानी भाषा में विरचित किसी अज्ञात कवि का निम्नलिखित उदाहरण भी दर्शनीय है-मननीय है,- "राधा पूजी गँवरजा, भर मोतीड़ा थाल । मथुरा पायो सासरो, बर पायो गोपाल ॥" अथ सँमाधि अलंकार लच्छन जथा- क्यों हूँ कारज करि -जतन, निपट सुगम है जाइ। ता सों कहत 'समाधि' लखि, काक-ताल के न्याइ ।। वि०-"जहां किसी प्रकार यत्न करने के प्रथम-हीं 'काक-तालीय-न्याय' से (अचानक) सुगमतापूर्वक कार्य हो जाय" वहाँ दासजी-मतानुसार 'समाधि-अलंकार कहा जायगा । भाषा-भूषण ( ब्रजभाषा ) के कर्ता-"सो 'समाधि' कारज सुगम, और हेत मिलि होत" ( जहाँ अन्य हेतु के मिल जाने से कोई कार्य सुगमता- पूर्वक हो जाय) लक्षण मानते हैं । और मतिराम का लक्षण है-"और हेत के पा०~१. (३०)हमें पठाए...। २. ( का०) (प्र०) बिसुधी करी,। (३०) सुधि मिले बिसुधि...। ३. ( का० ) (३०) की....(प्र.) को। ४. (सं० पु० प्र०) हो। ५. ( का० ) ( ० ) को....
- भा० भ० (केडिया ) पु० २५५, द्वितीय-सम-उदाहरण ।