पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४२१

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काव्य-निर्णय संभावनाल कार की चंद्रालोक से उत्पत्ति है, सर्व प्रथम वहीं उसका नामोल्लेख मिलता है । इनके अतरिक्त रुद्रट और रुय्यक कृत वर्गीकरण भी मिलता है। अस्तु, रुद्रट ने-'परिवृत्ति' और 'अन्योन्य' को वास्तव-वर्ग में, सहोक्ति को औपम्य वर्ग में रखा है । रुय्यक ने भी सहोक्ति-विनोक्ति को 'गम्यमान औपग्य' वर्ग में, अन्योन्य-सम को 'विरोधमूल' वर्ग में, विकल्प-समाधि और समुच्चय को 'काव्य-न्याय' अर्थात् बाह्य-न्याय मूलक वर्ग में स्थान दिया है। संस्कृत-अलकार प्रथों में, सर्व-प्रथम भटि-उद्भटादि कथित छब्बीस (२६) अलंकारों में परिवृत्ति' और 'सहोक्ति' का उल्लेख मिलता है, तत्पश्चात् भाविक का । भाविक को भट्टि-उद्भटादि के बाद भोज, मम्मट और रुय्यक ने भी माना है, वामन ने नहीं। इसी प्रकार अन्योन्य को रुद्रट, मम्मट, रुग्यक ने, समुच्चय को रुद्रट् , भोज, मम्मट, रुय्यक् ने, समाधि को भोज, मम्मट, रुय्यक ने, विनोक्ति को मम्मट-रुय्यक ने, काव्यार्थापत्ति और विकल्प' को रुय्यक ने सर्व प्रथम स्वीकार किया है । असंभव, प्रहर्षण, विपादन और संभावना को पीयूपवर्षी जयदेव ने, तथा प्रतिषेध और विधि को अप्पय दीक्षित ने स्वीकार किया है। प्रतिषेध का 'यशस्क' के 'अल कारोदाहरण' में भी उल्लेख मिलता है।" अथ प्रथम सँम' अलंकार लच्छन जथा- जाकों जैसौ चाहिऐ, ताकों तैसौई संग। कारन' में सब पाइए, कारन-ही को अंग ॥ उधुम' करि जो है मिल्यौ, वहै उचित धरि चित्त । है बिषमालंकार को, प्रतिद्वंदी 'सम' मित्त । वि०-"दासजी ने इन दोनों दोहों में 'सम' अलकार को पूर्व-प्राचार्यों की भाँति तीन विभागों में विभक्त किया है । अापने प्रथम-'सम' वहां माना है,- "जहां एक-दूसरे का यथायोग्य-संबंध दिखलाया जाय-एक का दूसरे के साथ अनुरूप कारणों से योग्य-संबध का वर्णन किया जाय । अापके कथनानुसार दूसरा 'सम' वहाँ है, जहाँ-कार्य में कारण के सब अंग मिल जॉय. कारण से ठीक- ठीक मिलता कार्य हो" और तीसरा 'सम' श्रापकी मान्यतानुसार वहाँ होता है- "जहां उद्यम (परिश्रम) करते-ही उचित (तत्-अनुकूल) फल मिल जाय, कार्य पा०-१. (का० ) (३०) (प्र.) कारज...। २. (का० ) मो.... ३. (३०) सचु...। ४.( का०) के...1 ५. (का० ) (३०) रंग । ६. (का०) (प्र.) उदिम....