पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४१७

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३८२ काव्य-निर्णय कारण से विशेषता को स्फुरणा हो ) में कुछ उन्मीलित जैसा-ही वर्णन होने पर भी 'सामान्य' की भांति वस्तुओं की स्थिति भिन्न रहकर भी किसी कारण से पृथक जानी जाती है। कुवलयानंद में भी 'उम्मीलित' और इसी से मिलते-जुलते 'विशेषक' को 'मीलित' तथा 'सामान्य' का विरोधी ( प्रतिद्वंदी) अलंकार मान कर पृथक् अलंकार के रूप में लिखा है, पर काव्य-प्रकाश में इन दोनों को 'सामान्य के अंतर्गत-ही लिखा है । उद्योतकार ने यहाँ स्पष्टीकरण करते हुए कहा है-"कारण विशेष-द्वारा भेद प्रतीत होने पर भी जिस अभेद की प्रथम प्रतीति हो चुकी है, वह अभेद दूर नहीं हो सकता, इसलिये ऐसे स्थानों पर 'सामान्य' ही मानना चाहिये 'विशेषक' नहीं। विशेषक अलंकार को, विशेष अलंकार-प्राचार्यों ने पृथक् अलंकार के रूप में नहीं माना है, इसलिए इसका वर्गीकरण भी नहीं हुआ है । ब्रजभाषा में भी विशेष प्राचार्यों ने इसे पृथक् अलकार के रूप में नहीं माना । जिन आचार्यों ने माना है, उन्होंने इसके सुंदर-से-सुंदर उदाहरण भो प्रस्तुत किये हैं।" प्रथम उनमीलित उदाहरन जथा-- सिख-नख फूलँन के भूषन विभूषित कर', बाँधि लीनों बलया, बिगत कीनी बजनी । ता पर सँबारयोर सेत भंबर को डंबर, सिधारी स्याँम-संनिधि निहारी का नजनी ।। छीर के तरंग की प्रभा को गहि लींनी तिय, कीनी छीर-सिंध-छिति कातिक की रजनी । ऑनद-छटा सों तन-छाँह-हूँ छिपाएँ जाँनि", भौरन की भीर संग लऐं'जात सजनी ।।. वि०-"उन्मीलित अलंकार से अलंकृत कृतियाँ प्रायः सभी अलंकाराचार्यों ने सूजी है, प्रथम गो. तुलसीदास जी की सूक्ति जैसे- चंपक-हरबा अंग-मिनि, अधिक सुहाइ । जाँनि परै सिय-हियरें, जब कुंम्हिलाह पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) (०नि०) कै...। २. (का०) (प्र०) सँवारे...। (३०) सँवारि...। ३. ( ० नि०) कहूँ.... ४. (प्र०) ( नि०) प्रभा...। ५. (वे) (प्र०) (0. नि०) जाति...! ६.(३०) ल्याएं ....

  • ० नि० (दास) पृ० ५३, १६७ । शुक्लामिसारिका नायिका-वर्णन ।