काव्य-निर्णय ३६१ "पायौ भेद सखिन सों सोबति अकेली बाल, प्रथम - समागम के भरी भै- भारी में। 'रघुनाय' चल्यो तहाँ, जागी पाइ माहट को, गदी भई भागि-लागि भीतर अटारी में ॥" कहा कहों कौतुक, कयौ न मोपं जात, कछु, भव-लों न देख्यौ ऐसौ रूप और नारी में । चिन-सों मिलि भई चित्र, हाथ में न आई. हारौ हेरि प्यारी, रही प्यारी चित्रसारी में । और पद्माकर जी कहते हैं- "यौस-ॉन गौरैन के गौर के उछाहन में, बाई उदैपुर में बधाई और - और है। देख्यौ भीम राँना या तमासे-तकिये के लिए, माँची भासमान में विमानन की मौर है। "कहै पदमाकर" त्यों धोखे मा-उमाँ के, गज-गोंनिन की गोद में गजानन की दौर है। पार-पार हेला, महामेला में महेस छे, ___ गौरन में कौन-सी हमारी गनगौर है॥" अथ "उनमीलित" श्री बिसेस अलंकार लच्छन जथा- जहँ मीलित - सामान्य में, कबू' भेद छैहराइ । तहँ 'उँनमिलित'-'बिसेसक'-हि, बरनँत सुकवि'मुहाइ । वि०-"जब मीलित और सामान्यालंकार में कुछ भेद ठहराया जाय, तब वहाँ सुकवि "उन्मीलित" और 'विशेषक' अलंकारों का सुंदर रीति से वर्णन करते हैं। अर्थात् जब दो पदार्थों का गुण एक-सा होते हुए भी किसी कारणवश उनमें भेद जान लिया जाय तब वहाँ "उन्मीलित" और "जहाँ सादृश्य के कारण उत्पन्न भ्रम किसी प्रकार अपने-आप लक्षित हो जाय" तो वहां "विशेष- कालंकार कहा जाता है। उन्मीलित, मीलित-अलंकार का विरोधी कहा जाता है, क्यों कि इसमें एक. वस्तु दूसरी वस्तु के साथ मिलकर भी किसी कारणवश पृथक् प्रतीति होने लगती है और "विशेषक" (जहाँ प्रस्तुत-अप्रस्तुत में गुण-सादृश्य होने पर भी किसी पा०-१. (स० पु० प्र०) कछुक.... २. (का०) (३०) सुमग.....
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