पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४११

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१७६ काव्य-निर्णय के बाहर है । श्रापसे पहिले सभी संस्कृत और ब्रजभाषा के प्राचार्यों ने इसे पृथक् अलंकार माना है और उदाहरण भी दिये हैं, जो तद्गुण से तो पृथक है-ही पूर्वरूप के अति अनुरूप हैं। अतएव-"जहाँ किसी से गए हुए गुण के पूर्ववत् पुनः प्राप्ति का कथन हो-वर्णन हो" वहाँ उक्त अलंकार निःसंकोच मानना चाहिये।" पूर्वरूप का अर्थ है-पहिले वाला रूप प्राप्त करना, जो तद्गुण में नहीं हो सकता, वहाँ नही समा सकता।" अथ अँनुगुन-अलंकार लच्छन जथा- 'अनुगुन' संगत ते जहाँ, पून-गुन-सरसाइ। "नील-सरोज कटाच्छ-लहि, अधिक नील है जाइ ॥" वि०-“जहाँ किसी वस्तु की संगति से-सामीप्य से, किसी (अन्य) वस्तु का गुण अधिक बढ़ जाय, वहीं 'अनुगुण' कहलाता है, जैसे-कामिनी के कटाक्ष से नील कमलों का अधिक नील-गहरे नीले रंग का हो जाना। ____ अनुगुण का अर्थ है-“गुण का बढ़ना । अतएव, अन्य के सामीप्य से स्व-गुण (अपने स्वाभाविक गुण) का उत्कर्ष होना 'अनुगुण' कहलाता है । इसी से इस अलंकार में किसी वस्तु के स्वाभाविक गुण का अन्यदीय गुण के संबंध से उत्कर्ष (बढ़ना) कहा जाता है । अनुगुण के 'अनु' उपसर्ग का अर्थ- 'समान', वैसा-ही, उस जैसा ही है, इसलिये जैसा गुण है वैसे-ही गुणवाले का सामीप्य होने से उस गुण का उत्कर्ष है, विरोधी गुण से नहीं, क्योंकि विपरीत गुणों का सामीप्य उत्कर्ष का कारण नहीं हो सकता।" अँनुन दुतीय उदाहरन जथा- जदपि हुती फीकी निपट, सारी केसर • रंग। 'दास' तासु' दुति है गई, सुंदरि-रंग-प्रसंग ।। वि०-"ब्रजभाषा के अलंकार-मंथों में दासजी कृत क्रम-तद्गुण, अत- द्गुण, पूर्वरूप" और तब "अनुगुण", अमान्य है। भाषा-भूषण-रचयिता से लेकर ग्वाल-श्रादि तक अलंकार-ग्रंथ सृजेताओं ने प्रथम तद्गुण, बाद में पूर्वरूप, फिर अतद्गुण और तदनंतर अनुगुण माना है । यह क्रम समीचीन है-उप- युक्त है।" पा०-१. (सं० पु० प्र०) सात...I (रा० पु० प्र०) है...।