काव्य-निर्णय ३७५ पुनः उदाहरन जथा- हरि, खरगी नौ ब्याल, गज, आगे दौरत राज। राज-छुटें-हूँ तुव दुहुँन, बनें' राज को साज ॥ अस्य तिलक इन दोनों उदाहरन में [न-मिटने के कारन होत हूँ अपनों गुन न मेंटिनों "पूरवरूप" है। वि०-"दासजी ने "पूर्वरूप" अलंकार का लक्षण नहीं लिखा, कारण स्पष्ट है । पूर्वरूप नाम में ही शब्दार्थ-लक्षण निहित है। फिर भी 'पूर्वरूप' का लक्षण भाषा-भूषण के रचयिता “महाराज जसवंतसिंह" जी कृत इस प्रकार है- "पूर्वरूप' लै संग-गुन, तजि फिर अपनों लेत। दूजें, जब गुन नाँ मिटै, किमिन कौ हेत ॥" अर्थात् प्रथम पूर्वरूप वहाँ होता है "जहाँ कोई वस्तु पासवाली वस्तु के लिये हुए गुण को त्याग पुनः अपना गुण-ग्रहण करे" और दूसरा पूर्वरूप वहां, "जहाँ किसी गुण के मिटने का कारण होते हुए भी वह (गुण ) न मिटे।" दासजी-रचित दोनों उदाहरण दोनों पूर्वरूपों के हैं। चंद्रालोक में भी 'पूर्वरूप' के दो भेद- "पुनः स्वगुणसंप्राप्तिर्विज्ञया पूर्व- रूपता" (अन्याश्रय-जनित निज गुण के नष्ट होने पर पुनः अपने रूप में श्रा जाना ) और "यवस्तुनोऽन्यथा रूपं तथा स्यात्पूर्वरूपता" (जिस वस्तु का नाश करने के बाद उसके धर्म का स्थापन अन्य वस्तु के द्वारा दिखलाया जाय) किये गये हैं । ब्रजभाषा में भी श्री चिंतामणि के अलावा प्रायः सब ने पूर्वरूप के दोनों भेद माने हैं। पूर्वरूप के प्रति कन्हैयालाल पोदार का कहना है-"कुवलयानंद में "अरुण कांति से अश्व सूर्य के भिन्न वर्ण हो जाते हैं." और "लखत नीलमनि होति अखि कर विद्रम दिखरात, मुकता को मुक्ता बहुरि लग्यौ तोहि मुसक्यात।" -(अलंकार-मंजरी पृ० ३४४-४५) आदि उदाहरणों में पूर्वरूप अलंकार माना है। काम्य-प्रकाश में इस प्रकार के उदाहरण तद्गुण के अंतर्गत-हो दिखाये गये हैं। वस्तुतः (पोद्दारकी के कथनानुसार) ऐसे उदाहरणों में कुछ विशेषता भी नहीं है, अतः तद्गुण-ही मानना युक्ति-युक्तहै ।" पर यह कथन पोद्दारजा का असंगत है-समझ पा०-१.(का०) (३०) बन लिये राज कु साज-राज के साज। (प्र.) बन लिय राजक साज।
पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४१०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।