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काव्य-निर्णय
वि॰-"काव्य अथवा शन्द जैसा दासजी ने कहा है -'प्रभु-समित','सुहृद-संमित' और 'कांता-संमित रूप तीन प्रकार का कहा गया है। वेदेस्मृति प्रमु-संमित, पुराणादि इतिहास कथाएं मित्र-संमित, तथा रस-भेद-युक्त काव्य कांता-संमित । यथा-
"काव्य यशसेऽर्थ कृते व्यवहारविदे शिवेतरपतये।
सद्यः परनिवृत्तये कांता संमिततयोपदेश युजे ॥"
-काव्य-प्रकाश (संस्कृत)
अथवा-
"सत्कविरसनासूपी निरतुषत्तर शब्दशालि पाकेन ।
तृप्तो दयिताधर्मपि नाद्रियते का सुधावासी॥"
पुनः 'सवैया' जथा-
सक्ति कबित्त-बनाइवे की जिन'जन्म-नछत्र में दीनी बिधातें। काब्य की रीति लखी जु कबीन सों,देखी-सुनी बहु लोक की बातें। 'दास' जू जामें एकत्र ए तीन, बने कविता मन-रोचक ताते । एक-बिनाँ न चले रथ जैसें धुरंधर सूत के चक्र-निपाते।
भाषा में रस, अलंकार, गुन, बरन औ दोष को स्थान
'दोहा' जथा-
रस कविता के अंग, भूषन हैं भूषन सदा ।
गुन सरूप नौ रंग," दूबन करें कुरूपता ।।"
पा०-१. (प्र०) जिहिं...। २ (सं० प्र०) विधाते। (ल.) विधातहिं । ३. (प्र.) (म० प्र०) सिखी । ४. (सं० प्र०) बाते । -(ल.) बातहिं । ५. (प्र०) है...। ६. (सं० प्र०) एनीन्यों ।-(३०) ए तीनों । ७. (सं० प्र०) तातै । (ल.) तातहिं । ८. (भा० जी०,(३०) की ९. (प्र०) (सं० प्र०) सकल । १०. (सं० प्र०) अग...
- सू० स०-भग० पृ ३५३, २०।-का० का०रा०प० सिं० पृ० ३१७।