काव्य-निर्णय रस-गंध और रंग का वाचक है । यहाँ वह दूसरे के रंगों से रंगने वा न रँगने का द्योतक है। जैसे रंग से शुभ्र वस्तु का लाल होना-न होना लक्षित है तथा यही उल्लास-अवज्ञा से तद्-अतद् की प्रथकता है। अथ अतद्गुन-उदाहरन जथा- कौवा,' जपादिक'-सों उबट्यौ, सज्यौ केसर के अँग-राग अपारौ। न्हात बॅनेक बिधान सर रस सांत५ में सांत' करै कित न्यारौ। 'दास जू' त्यों अनुराग-भरयौ हिय-बीच बसाइ करौ नहि न्यारौ। लीन-सिंगार न होत तऊ, तँन आपनों रंग तजै नहिँ कारौ ॥ वि०-"अतद्गुण-अलंकार का उदाहरण कविवर 'विहारोलाल' का निम्न- लिखित दोहा भी सुंदर है, यथा- __“एरी, यै तेरी दई, क्यों हूँ प्रकृति न जाइ । नेह-भरे हिय राखिऐ तउ रूखिऐ लखाइ ॥" इस दोहे में कोई-कोई विरोधाभास (स्नेह से भी चिकनी न होने के कारण ) और विशेषोक्ति ( स्नेह कारण से चिकनाहट कार्य न होने में ) अलं- कार-द्वय को भी मानते हैं, किंतु "नायक के स्नेह-पूरित पात्र (हृदय) में रहते हुए भी नायिका का स्नेह (चिकनाई-स्नेही) गुण ग्रहण न करने में अधिक बल है-जोर है। "माँखों में रह रहे हो, दिल से नहीं गये हो। हैरान हूँ य शोनी, भाई तुम्हें कहाँ से॥" -मीर पूर्व-रूप-जथा- सारी सितासित, पोरी, रतीली-ह में बगराबै वहै छबि प्यारी। भाभा-समूह में अंबर कों, पैहचाँ निबौ 'दास' बड़ी किऐं बारी॥ चंद-मरीचिन सों मिलि अंगन• अंगन फैलि रही" दुति न्यारी। भोन-ध्यारे-हु बीच गएँ, मुख-जोति ते बैसिऐ होति उज्यारी ।। ___पा०-१. ( का० ) (३०) कैवा जपादिन...! २. ( सं० पु० प्र०) जबादन सौ । ३. ( का० ) (३०) (सं० पु० प्र०) को...। ४.( का०) (३०) (प्र.)न्हान.... ५-६. ( का०) (३०) (सं० पु० प्र०) संत...। (प्र०) रसा सांतलों सांत... ७. (का० ) (३०) (सं० पु० प्र०) हों.. । ५. (का० ) ( 1 (प्र.) (सं० पु. प्र०) पहिचानिऐ ...1६. ( का०) (३०) मारी। (प्र.) की किन्हवारी । १०.(प्र.) (सं० पु० प्र०) आंगन.... ११. (सं० पु० प्र०) (का०) (३०) (50) रहै.... १२. (सं० पु०प्र०) सों...।
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