काव्य-निर्णय ३७१ प्रधान है, इसलिये यहाँ तद्गुण भ्रांतिमान् अलंकार का अंग-मात्र है, प्रमुख नहीं।" विहारीलाल का यह दोहा भी 'तद्गुण अलंकार का अच्छा उदाहरण है, यथा- "अधर धरत हरि के परत, मोठ-दीठि-पट-जोति । हरित-बांस की बांसुरी, इंद्र-धYष- रंग होति ॥ 'लच्छीराम' कहते हैं- "भोर-हिं भाज हमारी मली, सजिबे कों सिंगार कही ललचाइ के। कींनी कछु हठ है हम सों, 'लबिराम' सु भीतरी चौक पुलाइ कें॥ है गयौ हेम को हार बना मिनि, मानस मेरे बिनोकि बजाइ के। चार घरी बों चकीसी-रही, गज- गौहर को गजरा पैहराइ कें॥ और "श्री भारतेंदु"- "माज एक लजनी, जवाहर खरीदवे कों, भाई हुती सुधर सुहाई हाट बारे की। कर में लिये ते भए मुक्ता प्रवाल जैसे, गुंजा-से लखाने फेरि दीठि ग-तारे की। कहै 'हरिचंद मोती भाप-से बखाए फेरि, हास को बिलास बन्यौ सुखमाँ कतारे की। बीजक को मोल पव्यो, नफा की चजावै कोन, प्रकल हिरॉनी वा जौहरी बिचारे की ॥ "गजब नैरंगे-अक्स भारिजेरंगीने दिखलाया । सुनहरा था दुपटा, हो गया गुलनार काँधे पर ॥ "मु.वाफे-जर लपेट दिया मुंह के अक्स ने। गरदन पै भाके बन गई, गोटे का हार जुल्फ ॥ पुनः उदाहरन जथा- सखि, तू कहै प्रवाल भौ, मुकता हाथ-प्रसंग । लख्यौ दीठि चहुँटाइ हों, सु तो चिहुँटनी-रंग ॥
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