पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४०४

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काव्य-निर्णय अर्थात् तद्गुण वह अलंकार कहा जाता है, जिसमें न्यून गुणवाली प्रस्तुत वस्तु किसी अप्रस्तुत अत्यंत उज्वल (उत्कृष्ट): गुणवाले पदार्थ के गुण को ग्रहण कर ले ।" यही नहीं, श्राप व्याख्या करते हुए पुनः कहते हैं-"जहाँ कोई वस्तु अपने वास्तविक रूप को छिपा कर किसी समीपस्थ विशेष गुणवाले पदार्थ के श्रात्म-गुण-संपत्ति के द्वारा प्रभावान्वित वा संक्रांतवर्ण होकर उसी के छाया-सदृश रूप को प्राप्त हो जाय, तब वहाँ यह अलंकार होता है, क्योंकि उस अप्रकृत पदार्थ का गुण यहाँ प्रकृत पदार्थ में संक्रांत हो जाता है । इसलिये यह 'तद्गुण' कहलाता है......।" पीयूषवर्षी जयदेव की परिभाषा सूक्ष्म और सास्-गर्भित है। आप कहते है-"तद्गुणः स्वगुणत्यागादत्यतः स्वगुणोदयः" (अन्याश्रय-जनित अपना गुण त्यागकर दूसरे का गुण-ग्रहण करने पर तद्गुण होता है )ब्रजभाषा में भी इसकी संस्कृत से मिलती-जुलती विविध परिभाषाएँ हैं। उन सब को लक्ष में रख पोद्दार कन्हैयालाल की गदा-परिभाषा शुद्ध और परिष्कृत और अपने में पुष्ट समझ कर यहाँ उद्धृत की जाती है, जैसे-"अपना गुण त्याग कर उत्कट गुणवाली निकटवर्ती दुसरी वस्तु के गुण-ग्रहण करने के वर्णन को 'तद्गुण' अलंकार कहते हैं।" तद्गुण का अर्थ है-"उसका, दूसरे का, अन्य का गुण । इसलिये इस अलकार में लक्षणानुसार अन्यदीय गुण का ग्रहण होता है। यहाँ गुण से- 'रूप-रस-गंधादि' लिया जाता है, यथा- "गुणोऽप्रधाने रूपादौ मौर्या सूत्रे वृकोदरे। अस्तु, संस्कृत-विश अलकाराचार्यों का कहना है--श्रीमम्मट-मान्य तद्गुण- लक्षण 'अलंकार-सर्वस्व'-कर्ता के तद्गुण की परिभाषा से अनुप्राणित है। अथ उदाहरन जथा- पाँ-संग पन्नाँ है प्रकासत छनक' कनक- रंग पुनि' ले के पैग रंगन पलत है। अधर-ललाई लावै लाल की ललक पाऐं: पलक • झलक मरकत • सौ लगता है। पा०-१.( का० )(प्र.) छनक लै कनक । (40) छनकु लै कनक...। २. (का०) ...पुनि प्रेगु रंगनि पलतु... ( )( ) पुनि पै कुरंगनि... (सं० पु० प्र०) पनि पै गुन रंगन...। ३. (का० ) पायो...! (३०) पाय...। ४. (का)(३)(प्र.) हलत है।(सं० पु०प्र०)(न.सि.ह.) सौरलत है। २४