३६८ काव्य-निर्णय रात में न जागें, ध्यान-जोति को न पागें, कहूँ कैसे-हूँ न लागें कहै कोड काऊ वेग में ॥ बेद को न भेद अवगाहती हैं न 'रघुनाथ', निपुन भयौ न चाहती हैं जोग-अंग में। करिबे को उज्जल सुधा-सौ अभिराम देखौ, मैंन ब्रज-वाम रँगती है स्याम - रंग में ॥" कविवर "विहारीलाल" कहते हैं- "मरिबे को साहस कियौ', बढ़े बिरह की पीर । दौरति है सँमुहें-ससी, सरसिज, सुरभि सँमीर ॥" पुनः बिचित्र के दूसरे रूप को लच्छन-उदाहरन जथा- दोष-बिरोधी के बलै, गॅनों न गन-उद्योत । कछु भूषन-बिस्तरन गन, रूप, रंग, रस' होत ॥ वि०-"जहाँ प्रबल विरोध के कारण गुणों का उदय न होने पर भी कवि. कथन की वैचित्र्यता के कारण गुणों के साथ रूप-रंग और रस पैदा होता हो तो वहां भी यह 'विचित्रालंकार' मानन चाहिये । यह दासजी का अभिमत है, किंतु इस अभिमत का उदाहरण आपने नहीं दिया है।" अथ तदन-अलंकार लच्छन जथा- 'तदन', तजि [न आपनों, संगत को गुन लेत । पाएं पूरब रूप फिर, स्वगुन सुमति कहि देत । वि.-"जहां अपना गुण त्याग कर संगति-पास वालों का गुण-ग्रहण किया जाय, वहाँ 'तद्गुण' अलंकार दासजी-मतानुसार है। तद्गुण अलंकार का विवेचन सर्व प्रथम-रुद्रट, मम्मट और रुम्यक् ने अपने-अपने ग्रंथों (काव्याल कार, काव्य-प्रकाश, अलंकार-सर्वस्व और अलकार- सूत्र) में किया है । रुद्रट ने इसे "अतिशयवर्ग' और रुय्यक ने "न्याय-मूल" वर्ग के लोक-न्याय-मूलक भेद के अंतर्गत गणना की है। श्रीमम्मट 'तद्गु ' का विषय बतलाते हुए कहते हैं- "स्वमुत्सृज्य गुणं योगादरयुज्ज्वल गुणस्य यत् । दस्तु तद्गुणतामेति भएयते स तु तद्गुणः ॥" पा०-१. (३०) (प्र०) उद्दोत...! २. (प्र०) से । ३. (सं० पु० प्र०) नाम...।
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