पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/४०२

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काव्य-निर्णय ३६७ अथ विचित्र अलंकार लच्छन बरनन जथा- करत दोष की चाँह जहँ, ताही में गुन देखि । तहँ 'बिचित्र' भूषन कह्यो,' हिऐं चित्र घबरेखि ।। वि० -- “जहाँ दोष को चाहना पर गुण दिखलायो दे, वहां दासजी ने "विचित्र-अलंकार माना है। अलंकार-थों ( सस्कृत-ब्रजभाषा ) में विचित्रालकार की विविध व्याख्याएँ मिलती हैं। चंद्रालोककार कहते हैं-"विचित्रं चेत्प्रयत्नः स्याद् विपरीतफलप्रदः" ( जहाँ किये गये प्रयत्न से विपरीत फल मिले ) और विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते है-"विचित्रं तद्विस्वस्य कृतिरिष्ट फलाय चेत्"-साहित्य-दर्पण, ( जहां अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिये उसके विरुद्ध अनुडान किया जाय ) तथा इसी प्रकार ब्रजभाषा में-"इच्छा फल बिपरीत की कोजै जतन-विचित्र" (भाषा- भूषण), "कहि बिचित्र सु बिरुद्ध फल पावन को उद्योग" (चिंतामणि ), "जहाँ करत उचॅम कछु, फल-चाँहत विपरीत ( मतिराम ) और "सो 'विचित्र' फल-चहि जु कछु, जतन करें विपरीत" ( पद्माकर ) इत्यादि अनेक मिलती- जुलती परिभाषाएँ हैं। विचित्र का शम्दार्थ-विस्मय, अद्भुत और श्राश्चर्य कहा जाता है। इस लिये इस अलंकार में इच्छा के विपरीत-प्रयत्न रूप अद्भुतता कथन की जाती है । अतएव जब इष्ट-फल की प्राप्ति के लिये उससे विपरीत कार्य किया जाय तब 'विचित्रालंकार' कहा जाता है । यहाँ यही विचित्रता होती है कि "हम चाहते तो कुछ और हैं, और करते उसके विपरीत हैं। साधारणतः इच्छानुसार प्रयत्न किया जाता है, जिससे इष्ट फल को फल-प्राप्ति हो, पर यहां ऐसा नहीं है...." अथ विचित्र को उदाहरन जथा- जीबन - हित प्रौन तजै, नबै उचाई हेत। सुख-कारन दुख-संग्रहै, ऐसौ' भृत्य अचेत ॥ वि०-'विचित्र अलंकार का उदाहरण 'कवि रघुनाथ' का सुंदर है, यथा- "तीरथ न करें, नम-व्रत कों न धरें एको, भूलें हूँ परें म काहू संगम के संग में । पा०-१. (का०) (३०) (प्र.) तिहि...। २. (का०) (३०) कहो...। ३. (३०) (प्र०) ऐसे...। ४. (का० ) मृत्यु...!