३६४ काव्य-निर्णय वि० - "जहाँ दोष में भी गुण माना जाय, दोष को भी गुण स्वीकार किया जाय, वहाँ अनुशा-अलंकार कहा-सुना जाता है । अनुशा---'अनु' और 'शा' का संयुक्तरूप है, जिसका अर्थ 'अनुकूल ज्ञान' होता है । इसलिये उक्त अलंकार में दोष वाली वस्तु को अपने अनुकूल मानकर उसकी इच्छा की जाती है,- दोष युक्त वस्तु भी अनुकूल समझी जाकर ग्रहण की जाती है । कोई - कोई श्राचार्य अनुज्ञा का अर्थ 'अनुमति' वा 'अंगीकार' भी करते हैं, तब इसका अर्थ होगा-'दोषों का 'अंगीकार' करना......। कुवलयानंद में अप्पय दीक्षित ने और रस-गंगाधर में पंडितराज जगन्नाथ ने अनुज्ञा को स्वतंत्र-अलंकार और अन्य प्राचार्यों ने 'विशेष' अलंकार के अंत- र्गत माना है।" कन्हैयालाल पोद्दार की 'अलंकार-मंजरी' में 'अनुज्ञा' के उदाहरण-स्वरूप भक्तवर 'रसखान' का निम्नलिखित छंद सुंदर दिया गया है, - "काहू सों माई, कहा कहिऐ, सहिऐ जु सोई 'रसखाँन' सहावें । नेम कहा जब प्रेम कियौ, तब नाचिऐं सोई जो नाच-नचाबें ॥ चौहत है हम और कहा सखि, क्यों-हूँ-हूँ पिय को देखन पावें । चेरिऐ सों जु गुपाल रुचे तो चलो-री सबै मिज चेरी कहावें ॥" पुनः दूसरौ उदाहरन जथा- कोंन मनाब माँनिनी, भई और की और । लाल रहे छकि खि-ललित, लाल बाल-ग-डोर' ॥ वि०"दासजी की-"कोन मनाबै मानिनी०" रूप सरस सूक्ति पर अष्टछाप के प्रसिद्ध 'जड़िया कवि' नंददासजी को सुदर उक्ति देखिये । मानिनी के स्वरूप का श्राप कैसा सुंदर भाव-युक्त वर्णन करते हैं-चित्र-सा खींचते हैं, यथा- "तुम्ह, पैहले तो देखौ भाइ, माँनिनी की सोभा नाल, पाचं ते मनाह लीजो प्यारे हो गुर्विदा । कर पर धर कर कपोन, प्यारी रही नेन मूदि- कमल - विछाह मौनों सोयौ सुख चंदा । रिस-भरी भोंह मौनों भौरा है परबरात, 'नंददास'-प्रभु ऐसी काहे कों रिसऐ बाल, जाके मुख देखे ते मिटत दुख-वंदा ।" पा०-१. (का०) (३०)(प्र०) कोर ।
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