पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३९८

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काव्य-निर्णय 'दास' के दयाल हो' सुरीति-ही उचित तुम्हें, लींनी जो कुरीति तौ तिहारौ ठाठ-ठटि गो। ह के जगदीस कीनों बाँहन वृषभ को, तौ कहा सिब साहिब गयंदन को घटि गौ ॥ अथ तृतीय अबग्या-"दोष ते गँन न हों नों"-लच्छन- उदाहरन जथा- जहाँ दोष ते गुँन नहीं, इहौ "अबग्या' 'दास' । "जहाँ खलँन को गँन बस, तहाँ न धरँम प्रकास ॥" पुनः उदाहरन जथा-- काँम-क्रोध-मद-लोभ की, जा हिय-बसी जमात । साधु-भाँबती-भक्ति तहँ, 'दास' बसै किहिँ भाँत ॥ अथ चतुर्थ 'अवग्या'--"गुन ते दोष न हों नों" लच्छन जथा--- जहँ गन ते दोषौ नहीं, इहौ'अबग्या बेस। “राँम-नॉम सुमरन जहाँ, तहाँ न संकट लेस ॥" पुनः उदाहरन जथा- कोरो-कबीर, चमारौ 'दास' हो,५ जाट धना, सदनाँहूँ कसाई। गीध गुनाह-भरथी-ही हुतो, भरि-जॅनम अजामिल कींनी ठगाई॥ 'दास' दई इन को गति जैसी, न तैसी जपीन-तपीन हूँ पाई। साहिब साँचौ न दोष गँने, गुन एक लहै जो समेत सचाई ।।* वि०-"भारती-भूषण" में दासजी के इस "श्रवज्ञा" के चतुर्थ उदाहरण को अवज्ञा के द्वितीय लक्षण-"दोष से दोष को अप्राप्ति के उदाहरण में संकलित किया गया है। अथ 'अँनुग्या' अलंकार लच्छन बरनन जथा--- दोषौ में गन देखिए, तहाँ ९ 'नुग्या' नाम । "भलौ भयौ मग-भ्रम भयौ," मिले बोच घनस्याम ॥" पा०-१.(३०) ही...| २. (प्र०) लखन...। ३. (प्र०) यही...| ४.( का०) ( भा० भू०) चमार, रैदास...। (३०) चमार रैदास..... ५. (प्र.)...। ६. ( का० ) (वे.) (प्र०) (भा० भू०) सधना.... ७.(का०) (३०) हो.... ५. (वे.) गहें.... ६.(का० ) (३०) (प्र०) ताहि...। १०. (३०) भई....

  • भा० भू० ( केडिया) पृ० ३०६ ।