पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/३९०

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काव्य-निर्णय ३५५ पुनः उदाहरन जथा- सिंघो-सुत को माँन भै, ससा गयौ ससि-पास । ससि-सँमेत तहहै गयो, सिंघी सुत को प्रास ।। जिहि मोहिबे काज सिँगार-सज्यौ, तिहिं देखत' मोह में भाइ गई। न चितोंन चलाइसकी, उन-ही को' चितोंन के घाइ' अघाई गई। भानु -लली की दसा सुनों' 'दास जू', देति ठगोरी ठगाइ गई। नॅद-गाँउ गई दधि-बेचँन कों, तहँ आप-ही-श्राप बिकाइ गई। वि-कन्हैयालाल पोदार ने दासजी के-"तिहिँ मोहिबे काज...." छंद में द्वितीय विषम मान -"यहाँ श्री कृष्ण को मोहने के कार्य का विनाश होकर स्वयं मोहित हो जाने से अनिष्ट की प्राप्ति है" कहा है, किंतु वास्तव में यह छंद उक 'विषम' का हो उदाहरण है, क्योंकि ब्रजभाषा के प्राचार्यों ने श्राप द्वारा कहे गये द्वितीय 'विषम' के विषय को तृतीय विषम मान तदनुरूप उदाहरण दिये हैं। 'तृतीय विषम' का 'गोकुल कवि' का उदाहरण भी सुंदर है, यथा- "रूप - गुमाँन • भरी अबलों, सब - ही की दसा सुनती उठि कोहि-री। चोरिबे कों चित-से वित्त कों, चलि भाई-ही पौरि पै भावति जोहिरी ॥ 'गोकुज' होति लखालखी पौर-हीं, है गयौ चेटक-सौ चख पोहि-री। मैं मन मोहन को कहाँ मोमो, गयौ मन-मोहन-हीं मैंन-मोहि-री।" और कवि 'वृद' जी कहते हैं- "छीन भई, तँन कॉम-मई, जिनके हित बाट इते दिन हेरी। भागॅम जोतिषी-बूझति-ही, नित देव - मनावत साँझ - सबेरी ॥ भायौ सु प्रॉन-पिया परदेस ते, देहु बधाई कहै सुनि मेरी। । 'बृद' कहै उँन गारी दई भी निकारि दई तब भतर-घेरी॥" यहां नायिका-द्वारा पति के विदेश से पधारने की शुभ-सूचना देनेवालो दासी को बधाई (धुन ) प्राप्त न होकर गाली और घर से निकाले जाने का अनिष्ट- पा०-१. (३०) की...। २. ( का०) (३०) देखते...। ३. (सं० पु० प्र०) (का० ) (३०) के...। ४. (सं० पु० प्र०) (प्र०) भाइ। ५. ( का०) (३०) (प्र०) वृषभान ... ६. (प्र०) यह...। ७. (रा० पु० नी० सी०) नँदगाउँ...। (प्र०) बरसाने ।

  • अ० म० ( पोहार ) पृ० २६० । का० का० ( रा० सा० ) पृ० ४४ ।