और-ही कारज औरें रंग' (जहाँ कारण किसी और रंग का हो और कार्य- उससे उत्पन्न कार्य, किसी और रंग का हो) तथा तृतीय-"करता को न क्रिमा- फल, जनरथ-ही फल होह" (जहाँ कर्ता के अनुरूप क्रिया-फल न होकर विपरीत फल हो, अर्थात् जहाँ सुदर उद्यम करने पर भी बुरा फल हो) कहा गया है। संस्कृत-अलंकार-ग्रंथों में इन तोनों भेदों को-"परस्पर में वैधर्म्यवाली वस्तुओं का संबंध अयोग्य सूचन करना, कर्ता को क्रिया के फल की प्राप्ति न होकर उसके विपरोत अनर्थ को प्राप्ति होना' तथा "कारण के गुण-क्रियाओं का क्रमशः विरुद्ध वर्णन करना"-इत्यादि प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय 'विषम' कहा गया है। कोई-कोई मंथकार "प्रथम विषम' के गुण-विरोध ओर "क्रिया-विरोध ' नाम के दो भेद पृथक-पृथक मानते हैं, जो उचित हैं । काव्य-प्रकाश-कार प्राचार्य मम्मट ने विषम के चार भेद माने हैं । यथा - "क्वचिद्यतिवैधान श्लेषो घटनामियात् । कर्त्त : क्रियाफलावाप्तिवानर्थश्च यद्भवेत् ॥ गुण क्रियाभ्यां कार्यस्य कारणस्य गुणक्रिये । क्रमेण च विरुद्ध यस एष विषमो मतः॥" अस्तु, “प्रथम विषम वहाँ, जहाँ दो संबंध रूपों से विवक्षित पदार्थों का उनके अति वैलक्षण्य के कारण परस्पर संबंध को अनुपन्न प्रतीति विशेष रूप से होती रहे। द्वितीय वहाँ, जहां कर्ता को उसकी क्रिया का फल मिलना तो अलग, उलटे एक अनर्थ जैसा प्रतीति हो । तीसरा वहाँ, जहाँ कार्य के गुण से कारण के गुण का विरोध प्रतीति होता हो और चौथा वहाँ, जहां कार्य की क्रिया से कारण की क्रिया विपरीति जैसो प्रतीति होतो हो।" इन लक्षणों का और भी खुला-सा वहां गद्य-कारिकाओं में किया गया है । अतएव इनमें दो भेद तो रुद्रट के 'काव्यालंकार' को देन है और दो रुय्यक के 'अलंकार-सर्वस्व' की, यथा- कार्यस्य कारणस्य च यत्र विरोधः परस्परं गुणयोः । तद्वक्रिययोरथवा संजायतेति तद् विषमम् ॥ विरूपाकार्याऽनर्थयोरुत्पत्तिविरूपसंघटना च विषमम् ॥ -इत्यादि यहाँ इतना ध्यान रखने की बात है कि "जहाँ कारण-कार्य में स्वाभाविक रूप से बिषमता रहती हो वहां यह अलंकार नहीं बनता, अपितु कवि-द्वारा उक्ति-वैचिच्य से विषमता उत्पन्न होने पर-ही यह अलंकार कहा जायगा। विरोध, असंगति और विषम को पृथक्ता भी समझने की चीज है । विरोध में-"दो
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