काव्य-निर्णय भनत करे की बात अंतै करि दीजै 'दूजी'- ___'जावक पगॅन लाल भाल में दिवाली है। और करिबे को भए उहित कुमर कान्ह, कियौ सो बिरुद्ध भेद तीसरौ जतायौ है। ललक सों भाए लघु मौन मेंटिवे कों पीक- __ पलक झलक गुरु - माँन मलकायौ है॥ छंद में तीनों लक्षण-उदाहरण स्पष्ट हैं, "खंडिता" नायिका है। छंद में वर्णित तीसरी असंगति के प्रति इतना-विशेष कहना है कि "नायक अाया अवश्य पर मान-मोचन नहीं किया, करता तो 'विषम' अलंकार का विषय बन जाता-उदाहरण हो जाता...। असंगति अलंकार के उदाहरण उर्दू-साहित्य में भी काफी मिलते हैं, एक पूर्व में दिया गया है, दो-एक की और बानगी देखिये, जैसे- "बाँधी जो उसके हाथ में कल गैर ने महदी। आँखों में मेरी देख के लोहू उतर भाया ॥" ज़िक्र उस परीवश का, और बयाँ अपनों । बन गया रकीब, जो था राज-दाँ अपना । बुझ गया गुलरू के भागे शमा औ गुल का चिराग । बुलबुलों में शोर, परवानों में मातम छा गया । "किया गैरों को करल उसने, मरे हम शर्म के मारे । हमें तो मौत भी भाई नसीबे दुश्मनों होकर ॥" इत्यादि... एक बात और, वह यह कि "दासजी के इस छंद को "मनोज-मंजरी" कार अजान कवि ने 'पूर्वानुराग, मिलन से पूर्व व्याकुलता की- मिलने की, दर्शन (देखने) की इच्छा के उदाहरण में मंकलित किया है। पूर्वा- नुराग उभय-दली शृगार-रस के वियोग-पक्ष का एक विशेष भेद है।
- भारतीय साहित्य-ग्रयों में वियोग वा विप्रलंभ-शृगार तीन-"पूर्वानुराग, मान
और प्रवास रूपों में विभक्त किया गया है। इस (पूर्वानुराग) के उदाहरण प्रस्तुत करने में कवियों ने बड़ी सहृदयता से कार्य किया है-सुदर से सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, एक जैसे- "चौहति दुरायो तो सों की बगि दुराऊ दैया, साँची हो कहाँ-री बीर सुंन सुख कौन है।